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________________ कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय २१ इसलिए उसके लिए सम्यक् कहे जाने वाले श्रुत (शास्त्र) तो सम्यक्श्रुत हैं ही, मिथ्या कहे जाने वाले श्रुत भी सम्यक्श्रुत हो जाते हैं, इसके विपरीत जिसकी दृष्टि मिथ्या है वह आचारांग, भगवती आदि सम्यक्शास्त्रों को भी मिथ्या (विपरीत) रूप से ग्रहण करता है, इसलिए उसके लिए वे सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत हो जाते हैं।” “अथवा मिथ्यादृष्टि के लिए भी ये ही शास्त्र ग्रन्थ सम्यक्श्रुत हो जाते हैं क्योंकि कई मिथ्यादृष्टि उन शास्त्रों सिद्धान्तों से प्रेरित होकर अपने मिथ्यापक्ष (पकड़, पूर्वाग्रह) का त्याग कर देते हैं"। सम्यग्दृष्टि ही नौ तत्त्वों के माध्यम से कर्मसिद्धान्त के यथार्थ मूल्यनिर्णय में सक्षम इसलिए किसी भी वस्तु, सिद्धाना या व्यक्ति का सम्यक् या असम्यक् मूल्य-निर्णय व्यक्ति की सम्यक् या असम्यक् दृष्टि पर निर्भर है। दृष्टि के अनुसार ही प्रायः श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, स्पर्शना, पालना, अनुपालना, अथवा बुद्धि या मान्यता बन जाती है। जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है, वह हर पहलू से सापेक्ष रूप से सोचकर कर्मसिद्धान्त का यथार्थ मूल्य-निर्णय करता है और उसके यथायोग्य उपयोग से जीवन को आध्यात्मिक उक्रान्ति के पथ पर ले जाता है। किन्तु जिसकी दृष्टि मिथ्या है, वह उसका मूल्य-निर्णय विपरीत रूप में या मिथ्यारूप में करे, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। वीतराग सर्वज्ञ आप्त परमात्मा ने नौ तत्त्वों के माध्यम से कर्मों की हेयता, ज्ञेयत और उपादेयता का निर्णय करके कर्मसिद्धान्त का यथार्थ मूल्य-निर्धारण कर दिया है। अल्पज्ञ (छदमस्थ) को सर्वज्ञ आप्तपुरुषों द्वारा इन्हीं तत्त्वभूत नौ पदार्थों के माध्यम से किये गये मूल्य निर्धारण पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, एवं स्पर्शना-पालना करके कर्मसिद्धान्त का यथायोग्य प्रयोग= उपयोग करना चाहिए। तभी कर्मसिद्धान्त के अस्तित्व और वस्तुत्व (यथावस्थित स्वरूप) के साथ उसका मूल्य-निर्धारण उसकी समझ में आ जाएगा और ऐसे अभ्यास से वह एक सच्चे कर्मविज्ञानी के समान नौ तत्त्वों के माध्यम से आनवों का निरोध करने तथा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय (निर्जरा) करने में तथा मूल्य-निर्धारण करने में कुशल हो जाएगा। भगवद्गीता की भाषा में 'योगः कर्मसु कौशलम् २ (कों का उपयोग-अनुपयोग तथा निरोध-क्षय करने में कौशल ही योग है) इस उक्ति को चरितार्थ कर सकेगा। १. (क) 'एयाई मिच्छादिहिस्स मिच्छत्त परिग्गहिआई मिच्छासुयं। एयाइं चेव - सम्मदिहिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं। (ख) “अहवा मिच्छादिट्ठिस्स वि एयाइं चेव सम्मसुअं, कम्हा ? सम्मत्तहेउत्तणओ, अम्हा ते मिच्छविआ तेहिं चेव समएहिं चोइआसमाणा केइ सपक्खदिट्ठीओ चर्यात ॥" २. भगवद्गीता अ. २ श्लो. ५० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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