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________________ २०. कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) जिनकी बुद्धि, रुचि, श्रद्धा, प्ररूपणा, मान्यता, एवं दृष्टि पूर्वोक्त विविध कारणों से मिथ्या या विपरीत हो जाती है, “वे इन दुष्पूर कामनाओं की पूर्ति के लिए दूसरों को मारने, दूसरों को संताप (दुःख) देने, दूसरों को अपने अधीन करने तथा जनपदों का वध करने, जनपदों को परिताप देने और जनपदों तक को अपने अधीन करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं। मलिनबुद्धिजन यथार्थ मूल्य-निरूपण नहीं कर पाते इस प्रकार कामभोगासक्ति, कषाय-तीव्रता, विविध मदग्रस्तता, मिथ्यात्व, अविद्या या अज्ञान आदि के कारण जिनकी बुद्धि आदि मोह-मलिन, मिथ्या या विपरीत हो जाती है, वे कर्मसिद्धान्त का न तो यथार्थ वस्तुत्व निरूपण कर सकते हैं, न ही उस पर श्रद्धा या रुचि रहने हैं, और न उसका यथार्थ मूल्यनिर्णय कर पाते हैं। बल्कि ऐसे लोग कभी तो जान-बूझकर और कभी भ्रान्ति या अविद्या या मूढ़ता के शिकार होकर कर्म- सिद्धान्त का उत्थापन करने लगते हैं। कर्मसिद्धान्त का यथायोग्य मूल्यनिर्णय न होने का फल कर्मसिद्धान्त के यथायोग्य मूल्यनिर्णय न होने के फलस्वरूप वे जीवों की अहिंसा, दया, करुणा, सहानुभूति, या अवध का प्रतिपादन हिंसा, निर्दयता, अकरुणा, कठोरता, क्रूरता, उपेक्षा तथा जीववध के रूप में करने लगते हैं। अथवा वे किसी वस्तु का मूल्यनिर्णय सापेक्ष या अनेकान्त या अनाग्रह दृष्टि से न करके एकान्त, निरपेक्ष, पूर्वाग्रही या स्वकीय मिथ्याभिनिवेश दृष्टि से करते हैं। कर्म सिद्धान्त का भी वे इसी प्रकार गलत मूल्यांकन करते हैं। फिर वे किसी अपेक्षा से दूसरे के सम्यक् दृष्टिकोण को न समझकर अपनी एकान्तवादी मिथ्या मान्यतानुसार कुयुक्तियों एवं कुतर्को से मिथ्या सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। सम्यग्दृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत भी सम्यक् : मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक्श्रुत भी मिथ्या ___लौकिक एवं लोकोत्तर नीति और अहिंसादि सद्धर्म के प्रतिपादक शास्त्रों एवं ग्रन्थों में लिखित तथ्यों एवं तत्त्वों का अर्थ एवं विवेचन भी वे अपनी ही दृष्टि से तोड़-मरोड़ कर करते हैं। नन्दीसूत्र में बताया गया है कि “जिसकी दृष्टि सम्यक् होती है, वह लौकिक लोकोत्तर आदि शास्त्रों ग्रन्थों आदि में लिखित बातों को सम्यक् रूप से ग्रहण करता है, १. से अण्णवहाए अण्णापरियावाए, अण्णपरिग्गहाए, जणवयवहाए, जणवय परियावाए, जणवय-परिगहाए। -आचारांग श्रु. १. अ. ३ उ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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