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________________ कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य- निर्णय “सतत मूढ़ मनुष्य (सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप) धर्म को नहीं जानता "।” इस प्रकार वह असम्यग्दृष्टिवान् मूर्ख दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ, उसके फलस्वरूप धननाश होने से उत्पन्न दुःख से मूढ़ बनकर विपर्यास (बुद्धिवैपरीत्य) को प्राप्त करता है। आचारांग के अनुसार विषयासक्त मनुष्य अपने को अमरवत् जानेकर विषयों के प्रति अत्यन्त श्रद्धा रखता है। भगवान कहते हैं- “विषयलोलुप व्यक्ति अपनी आत्मा के साथ शत्रुता (वैर) बढ़ाता है।” ‘"विषय-सुखार्थी मनुष्य सावद्यकार्य (पापकर्म) करता हुआ स्वयंकृत पापकर्मरूप दुःख से मूढ़ बनकर विपर्यास (दृष्टि और बुद्धि की विपरीतता) प्राप्त करता है।" फिर वह अपने ही प्रमाद से भिन्न-भिन्न जन्म-जन्मान्तरं प्राप्त करता है। “यह दुःख आदि स्वकर्मकृत है, कर्म - सिद्धान्त से यह जानकर सर्वशः कृत- कारित-अनुमोदित रूप से दुखोत्पत्ति के कारणभूत कर्मों का निरोध करे" | पापकर्मरत मानब शुद्धधर्म से अनभिज्ञ रहता है “यों अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ मानव धर्म (शुद्ध कर्म ) को यथार्थरूप से नहीं जानता, वह धर्म से अनभिज्ञ रहता है। हे मानव! प्रजा, प्राणिसमूह इसी कारण - से आंर्त्तदुःखों से पीड़ित है। जो कर्म कुशल हैं, किन्तु पापों से उपरत नहीं, और अविद्या (अज्ञान) से मोक्ष कहते हैं, वे' आवर्त्त संसार चक्र में ही बार-बार पर्यटन करते रहते हैं। १. (क) ते भो ! वयंति - एयाई आयतणाई से दुक्खाए, मोहाए, माराए, नरगाए, नरग-तिरिक्खाए ॥ - आचारांग श्रु. १ अ. २ उ. ४ १९ (ख) थीभि लोए पव्वहिए । - आचारांग श्रु. - आचारांग श्रु. १. अ. २ उ. ४ १. अ. २ उ. ४ (ग) सययं मूढे धम्मं नाभिजाणई।” २. इति से परस्स अट्ठाए कूराणि क्रम्माणि बाले प्रकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ । - आचारांग श्रु. १. अ. २ उ. ३ - आचारांग श्रु. १. अ. २ उ. ५ - आचारांग श्रु. १. अ. २ उ. ५ ३. (क) अमरायइ महासड्ढी (ख) वेरं वड्ढइ अप्पणो । (ग) सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ”. (घ) सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुव्वह । (ङ) “इइ कम्मं परित्राय सव्वंसो! Jain Education International - आचारांग श्रु. १. अ. २ उ. ६ - आचारांग श्रु. १. अ. २ उ. ६ ४. (क) ‘अण्णाण-पमाय-दोसेणं समयं मूढे धम्मं णाभिजाणई।” (ख) अट्टा पया माणवं! कम्मकोविया जे अणुवरया अविज्जाए पलिमोक्खमाहु, आ अणुपरियट्टंति ।” - आचारांग श्रु. १. अ. ५ उ. १ For Personal & Private Use Only S www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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