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________________ १८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) . इस प्रकार के लोग कर्मसिद्धान्त की मिथ्या प्रेरूपणा एवं विपरीत मूल्य-निर्धारण करते हैं। दृष्टि, श्रद्धा, बुद्धि आदि के विपरीत होने के कारण दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और बुद्धि कैसे विपरीत हो जाती है, इस सम्बन्ध में आचारांग सूत्र कहता है-“भोगों के लिए लालायित होकर पूर्णतया बाल (अज्ञानी और अत्यागी) और मूढ़ जन केवल जीवन की कामना करता हुआ (दृष्टि और श्रद्धा से) विपर्यास भाव को प्राप्त होता है। ऐसे विषयासक्त मिथ्यादृष्टिजनों को इस लोक में तप, दम, नियम, संयम आदि कुछ भी नहीं दिखाई देता, अर्थात्-उसे धर्माचरण बिलकुल नहीं सुहाता और न ही सूझता है।" ____ "ऐसे लोग विविध प्रकार के रंग-बिरंगे वस्त्र, आभूषण, मणि, कुण्डल, स्वर्ण आदि में तथा कामिनियों के राग-रंग में अत्यन्त गृद्ध हो जाते हैं। और उन्हीं में आसक्त रहते हैं।" ___ "जाति, कुल, बल, रूप आदि के मद से मनुष्य को तज्जनित हीनता प्राप्त होती है, कर्मसिद्धान्त के इस रहस्य को नहीं समझने वाला अभिमानी पुरुष (पाप कर्म-बन्धन से) हतोपहत होकर जन्म-मरण के चक्र में आवर्तन-परिभ्रमण करता है।'' कर्मविज्ञान ने आत्मिक सुख-प्राप्ति संवर और निर्जरा से बतायी है, जबकि जो संसार की मोहमाया में ग्रस्त हैं, वे इस तथ्य को नहीं समझते कि धनादि से तुम्हारी आत्मा को किंचिद् भी सुख नहीं होता, इन्द्रियों को क्षणिक वैषयिक सुखानुभव हो सकता है। मिथ्यादृष्टि विवेकमूढ़ मानवों का बुद्धि-विपर्यास विषयसुखार्थी मनुष्य कामिनियों को सुख का आयतन कहते हैं, परन्तु उनका यह कथन (कर्मबन्ध के फलस्वरूप) उनके लिए दुःख, मोह, मृत्यु, नरक तथा नरकतिर्यञ्च योनि का कारण होता है। वीतराग प्रभु का कथन है कि, "स्त्रियों से यह संसार प्रव्यथित है-पीड़ित है।" १.. (क) “संपुण्णं बाले जीविउकामे लालप्पमाणे मूढे विप्परियासमुवेई।" (ख) “न इत्थ तवो वा दमो वा नियमो वा दिस्सई।" (ग) “आरत्तं विरत्तं मणिकुंडलं सहहिरण्णेण इत्थियाओ परिगिज्झति तत्थेव रत्ता।" -आचारांग श्रु. १ अ. २ उ. ३ २. (क ) “से अबुझमाणे हओवहए जाई-मरणं अणुपरियट्टमाणे...। -आचारांग श्रु. १ अ. २ उ. ३ ३. (क) जेण सिया तेण नो सिया। इणमेव नावबुझति जे जणा मोहपाउडा। -आ. श्रु. १ अ.२ उ. ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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