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________________ कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय १७ उत्तराध्ययन सूत्र में इन तथ्यों को स्पष्ट करते हुए कहा है, कि काम-भोगों में आसक्त व्यक्तियों का मिथ्या दृष्टिकोण इस प्रकार का है कि मैंने परलोक देखा नहीं है, इहलोक में काम-भोगों में जो सुख है, वह प्रत्यक्ष है। भविष्य के जो शुभफल हैं, वे तो अदृष्ट हैं, किन्तु ये कामभोग हस्तगत हैं। इन्हें छोड़कर कौन परलोक के सुख की आशा करे। कौन जानता है- परलोक है भी या नहीं है ? दूसरों का जो हाल होगा, वही मेरा होगा, इस प्रकार कामभोगों में आसक्त अज्ञानी जन धृष्ट बना फिरता है। इस प्रकार वह पापकर्मा व्यक्ति एक ओर से पाप कर्मों का खुल्लमखुल्ला प्रचार करता है, लोगों को पाप कर्म करने की प्रेरणा देता है, दूसरी ओर स्वयं भी अर्थलोलुप एवं स्त्रियों में आसक्त बनकर निःशंक होकर पाप कर्म करता रहता है। इस प्रकार दोनों ओर से मन-वचन काया से पाप कर्मों का संचय करता रहता है।' विपरीतदृष्टि लोगों द्वारा कर्मसिद्धान्त का विपरीत प्ररूपण आचारांग सूत्र में ऐसे लोगों की दुर्मनोवृत्ति और विपरीत दृष्टि का परिचय देते हुए कहा गया है-“ऐसा विषयार्थी और निपटस्वार्थी मनुष्य अपने मित्र, स्वजन, परिजन, परिचित तथा नाना उपकरणों-साधनों, धन-धान्य, वस्त्रादि तथा सम्पत्ति आदि सब में आसक्त रहता है; अहर्निश वह प्रमादी, चिन्तित और संतप्त रहता है।" वह अर्थलोभ एवं विविध सुख-सुविधा के संयोगों की कामना करके काल और अकाल की परवाह न कर अहर्निश ऐसे दुष्पुरुषार्थ करता रहता है। उसका चित्त भी उन्हीं विषयों में रत रहता है, इसलिए वह निःशंक होकर दुःसाहसपूर्वक लूट-खसोट, शोषण आदि करता हुआ प्राणियों पर बार-बार (भाव) शस्त्र चलाता रहता है।''२ १. जे गिद्धे कामभोएसु एगे कूडाय गच्छति। न मे दिढे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई॥ हत्यागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो॥ जणेण सद्धिं होक्खामि, इइ बाले पगडभई। कामभोगाणरागेणं केसं संपडिवज्जई। कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिद्धेय इत्थिसु। दुहओ मलं संचिणइ सिसुणागुव्व मट्टियं -उत्तराध्ययन अ. ५ गा. ५, ६, ७, १० २. (क) माया मे, पिया मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूआ मे, ण्हुसा मे, सहि-सयण-संगंध-संथुआ मे विवित्तुवगरण-भोयण-च्छायणं मे। इच्चत्यं गहिए लोए वसे पमत्ते। इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो पुणो वसे पमत्ते। ___ -आचारांग श्रु.१ अ.२ उ. १ (ख) अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकाल समुट्ठाई संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुपे सहसाकारे विणिविट्ठ चित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो। -आचारांग श्रु. १ अ. २ उ. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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