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१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
संतप्त करना, पीड़ित करना चाहिए, उन्हें डराना, धमकाना और उपद्रवित करना चाहिए। यह जान लो, इसमें कोई दोष नहीं है। इस प्रकार के वचन (मिथ्यादृष्टि के) अनार्यों के हैं।''
इस प्रकार घोर कर्मबन्धन की कारणभूत जीवहिंसा का मूल्य-निर्णय मिथ्यादृष्टि, मिथ्यामति लोग विपरीत रूप में करते हैं। आज भी आतंक-वादियों द्वारा इसी प्रकार का मिथ्या मूल्य-निर्णय हम देख रहे हैं। मिथ्या धारणाओं के शिकार गलत मूल्य-निर्णय करते हैं
इसी प्रकार चोरी, छीना-झपटी, लूट-पाट, डकैती, हत्या, आतंक, उपद्रव आदि करने वाले लोग भी मिथ्या धारणा के शिकार होकर हिंसाजनित पापकर्म के विषय में गलत मूल्य-निर्णय कर लेते हैं। उनके लिए आचारांग सूत्र में कहा गया है- “जो इस नाशवान् जीवन में प्रमादी होता है। फलतः वह हत्यारा (घातक), छेदक, भेदक, लुटेरा, छीना-झपटी या अपहरण करने वाला, उपद्रवी (आतंकवादी), दूसरों को त्रास (पीड़ा) देने वाला हो जाता है और उसकी यह मान्यता बन जाती है कि जो किसी ने नहीं किया, वह (कुकृत्य) मैं करूँगा। (इन कुकर्मों को वह शुभकर्म मानता है।)२ । विपरीत दृष्टि वाले व्यक्तियों का विपरीत दृष्टिकोण एवं आचरण
विपरीत दृष्टि वाले व्यक्ति कर्मसिद्धान्त का गलत मूल्य-निर्धारण करते हैं। हिंसा, मिथ्यात्व (अज्ञान), असत्य, माया (कपट), पैशुन्य (चुगली तथा परनिन्दा) एवं दुष्टता करने में तथा मद्य, मांस का सेवन करने में कर्मसिद्धान्त जहाँ व्यक्ति के लिए पापकर्म का बन्ध तथा उससे होने वाले नरक-तिर्यंच आदि दुर्गति गमनरूप फल बताते हैं, जो आत्मा के लिए श्रेयस्कर नहीं है परन्तु हिंसा, असत्य, ठगी आदि में रत लोग इसे श्रेयस्कर मानते
१. "आवंती केयावंती लोयंसि समणा य माहणा य पुढो विवादं वदति
से दिटुं च णे, सुयं च णे, मयं च णे, विण्णायं च णे, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु सव्वतो सुपडिलेहियं च णे-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, परियावेयव्वा, उद्दवेयब्वा॥" "एत्य वि जाणह, णत्थित्य दोसो।" "अणारियवयणमेयं।"
- आचारांग, श्रु. १, अ. ४. उ. २ २. “जीविए इहा जे पमत्ता, से हत्ता, छेत्ता, भत्ता, लुपित्ता, विलुपित्ता, उद्दवेत्ता, उत्तासइत्ता, अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे।"
- आचारांग श्रु. १, अ २ उ. १ ३. "हिंसे बाले मुसावाई माइल्ले पिसुणे सढे। भुंजमाणे सुरं मंस सेयमेयं ति मन्नई॥
-उत्तराध्ययन. अ. ५, गा.९
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