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कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय १५ कर्मसिद्धान्त का यथार्थ मूल्य-निर्णय के लिए ज्ञानादि त्रिपुटी जरूरी
जैसे रोग से मुक्त होने के लिए रोग का निदान अर्थात् उसके स्वरूप या लक्षणों का ज्ञान, रोग-निवारण के उपायों का ज्ञान तथा तदनुसार चिकित्सा या उपचार करना, ये तीनों आवश्यक हैं, वैसे ही भवभ्रमण के कारणरूप कर्मों के रोग से मुक्ति के लिए कर्मविज्ञान के माध्यम से वीतराग, सर्वज्ञ, आप्त-पुरुषों द्वारा निर्दिष्ट नौ तत्त्वों में ज्ञेय, हेय और उपादेय इन तीनों प्रकार का ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और ग्रहण करने-छोड़ने की यथायोग्य क्रिया, ये तीनों आवश्यक हैं। इस प्रकार वीतराग आप्त-पुरुषों ने कर्मसिद्धान्त का मूल्य नौ तत्त्वों के माध्यम से कर्मों से सम्बद्ध हेयता, ज्ञेयता और उपयोगिता बताकर कर दिया है।' मूल्य-निर्णय व्यक्ति की दृष्टि, श्रद्धा, रुचि एवं बुद्धि पर निर्भर
परन्तु सामान्य व्यक्ति या स्व-परहित से अनभिज्ञ तथा तत्त्व-ग्रहण और तत्त्व-धारणा के प्रति अरुचिवाला व्यक्ति कर्मसिद्धान्त का यथार्थ मूल्य-निर्णय कैसे कर सकता है ? किसी भी वस्तु का मूल्य निर्णय व्यक्ति की दृष्टि, श्रद्धा, रुचि एवं बुद्धि पर निर्भर है। यदि व्यक्ति की दृष्टि, श्रद्धा, रुचि एवं बुद्धि असम्यक् या विपरीत होती है, तो वह सर्वज्ञोक्त तत्त्व, वस्तु या सिद्धान्त का निर्णय या श्रद्धान भी उलटे रूप में करता
सम्यग्ज्ञानियों की दृष्टि में सम्यक् समझी जाने वाली वस्तु को या तत्त्व अथवा सिद्धान्त को भी विपरीत रूप से ग्रहण करता है, जानता-मानता है, तो वह उक्त वस्तु का मूल्य-निर्णय अयथार्थरूप से विपरीत रूप से ही करता है।
उदाहरणार्थ-आचारांगसूत्र में कहा गया है- “इस विश्व में कतिपय तथाकथित श्रमण और माहन, इस प्रकार के भिन्न (विपरीत) वाद का निरूपण करते हैं कि हमने देखा है, सुना है, मनन किया है, तथा भलीभांति जान लिया है, और लोक में ऊर्ध्व-दिशा, अधोदिशा और तिर्यकदिशा में सर्वतोभावेन अच्छी तरह प्रतिलेखन (निरीक्षण, पर्यवेक्षण या सर्वेक्षण) कर लिया है कि सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्व हन्तव्य (मार डालने योग्य) हैं, उन पर शासन करना (हुकूमत करके जबरन आज्ञा में चलाना) चाहिए। उन्हें गुलामों या दास-दासी के रूप में अपने अधीन रखने चाहिए। उन्हें
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१. जैनतत्त्वकलिका पृ. ८० २. "असमियंति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा असमिया होइ उवेहाए।"
-आचारांग श्रु. १ अ. ५ उ. ५
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