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________________ १४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) का व्यक्ति शास्त्र या ग्रन्थ पढ़-सुनकर या रट-रटाकर जान ले, याद कर ले, इन तत्त्वों के भेद-प्रभेद, स्वरूप, लक्षण, अर्थ एवं परिभाषाएँ आदि घोटकर कण्ठस्थ भी कर ले, इन तत्त्वों की वह लम्बी-चौड़ी व्याख्या भी कर दे, परम्परागत संस्कारों के कारण इन तत्त्वों का स्वरूप दूसरों को समझा भी दे; परन्तु जब तक इन तत्त्वभूत पदार्थों पर उसकी दृष्टि, मति, श्रद्धा या रुचि आत्मलक्ष्यी नहीं हो, अथवा आत्मानुभूति से अनुप्राणित न हो अथवा जब तक वह उन तत्त्वभूत पदार्थों के यथार्थ स्वरूप, उनके अपने-अपने स्वभाव तथा उनकी हेयता-उपादेयता-ज्ञेयता को गहराई से भली-भांति समझकर हृदयंगम न कर ले, अथवा उनमें से मुख्य जीव तत्त्व (आत्मा) को केन्द्र मानकर शेष सभी तत्त्वों को आत्मिक विकास-हास की दृष्टि से जांच-परखकर उनके प्रति अपनी दृष्टि स्पष्ट न कर ले, तब तक उसकी वह श्रद्धा सच्ची श्रद्धा नहीं मानी जा सकती। फलतः सम्यक्श्रद्धा के अभाव में उसका ज्ञान भी तोतारटन जैसा ही होगा। अतः कर्म-विज्ञान कर्मरोग से मुक्त होने के लिए पूर्वोक्त नौ तत्त्वों के प्रति ज्ञानपूर्वक दृढ़श्रद्धा और तदनुसार यथायोग्य आचरण करने की बात कहता है। आशय यह है कि जैन कर्मविज्ञान का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जब तक इन तत्त्वभूत पदार्थों में से हेय-ज्ञेय-उपादेय का विवेक करके हेय के त्याग और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि एवं दृष्टि न हो तथा कषाय-मन्दता (प्रशम), विषयों या संसार के प्रति विरक्ति (निर्वेद), मोक्ष (कर्ममुक्ति) के प्रति तीव्र उत्सुकता (संवेग), प्राणिमात्र को आत्मवत् समझकर उनके प्रति अनुकम्पा और आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, कर्म तथा धर्माचरण के प्रति दृढ़ आस्था न हो, तब तक वह श्रद्धा शब्दात्मक ही मानी जाएगी, आत्मानुभवात्मक नहीं। आत्मानुभवात्मक श्रद्धा सम्यग्ज्ञान-पूर्वक यथोक्त आचरण के सहित ही सक्रिय श्रद्धारूप होती है। अतः कर्मविज्ञान के सन्देशानुसार मुमुक्षु के अन्तःकरण में अजीव, आस्रव और बन्ध में आकुलता तथा जीव, संवर, निर्जरा और मोक्ष में, अनाकुलता (अनुद्विग्नता शान्ति) देखने की वृत्ति होगी तभी तत्त्वभूत पदार्थों पर उसकी श्रद्धा आत्मानुभवात्मक तथा सम्यक्त्व-मूलक मानी जाएगी। उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया गया है कि इन पूर्वोक्त नौ तत्त्वों (तथ्यभूत पदार्थों भावों) के सद्भाव (अस्तित्व या स्वभाव) के सम्बन्ध में जिनेन्द्र प्रभु द्वारा किये गये उपदेश ( प्ररूपण) में जो भावपूर्वक (अन्तःकरण से) श्रद्धा होती है, उसे ही सम्यक्त्व (सत्यश्रद्धा) कहा गया है। १. "तहियाणं तुभावाणं, सडभावे उवएसणं। भावेण सद्दहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं॥" - उत्तराध्ययन २८/१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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