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________________ कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निणय १३ कोरे ज्ञान या कोरी क्रिया से कर्म-मुक्ति नहीं हो सकती ___ किन्तु एक बात निश्चित है कि जगत् के मूलभूत तत्त्वों के जानने मात्र से मुक्ति नहीं मिलती, आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध से कर्मविज्ञान द्वारा जिन सात या नौ तत्त्वों की प्रारूपणा की गई है, उनके प्रति, तथा उनके साक्षात् उपदेष्टा देव (तीर्थंकर देव) गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति श्रद्धा भी होनी चाहिए तथा कर्मों के आनव और बन्ध को जानकर उनसे मुक्ति के लिए कर्मविज्ञान द्वारा बताये अनुसार संवर और निर्जरारूप या सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्ररूप धर्म का आचरण भी करना आवश्यक है। अर्थात् सम्यक् ज्ञान के साथ सम्यक्श्रद्धान और सम्यक्श्रद्धान के साथ सम्यक्आचरण (क्रिया) करना भी-कर्ममुक्ति के लिए आवश्यक है। ___ जैन-कर्मविज्ञान का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि केवल क्रिया करने से यानी जप, तप, व्रत, नियम आदि का अनुष्ठान करने मात्र से कर्मों से छुटकारा नहीं मिल सकता। यदि तप, व्रत, नियम या धर्मक्रिया के साथ अहंकार है. ईर्ष्या है, प्रतिस्पर्धा है, भय है, प्रलोभन है, स्वर्गादि या इहलौकिक सुखादि की वाञ्छा है तो उनसे कर्मों का क्षय होने के बजाय और अधिक कर्मबन्धन होता जाएगा। अतः कर्मविज्ञान का सन्देश है कि जगत् के पूर्वोक्त मूलभूत तत्त्वों का सम्यक्ज्ञान और उन पर या उनके उपदेष्टाओं पर श्रद्धान करना भी आवश्यक है। ऐसा करने से ही व्यक्ति के साथ जन्म-जन्मान्तर से लगे हुए कर्मों के रोग से छुटकारा हो सकता है। भवभ्रमणरोग-मुक्ति के लिए भी ज्ञान-दर्शन-क्रिया, तीनों आवश्यक जैनदार्शनिकों ने रोगी का दृष्टान्त देकर इस तथ्य को भली भांति समझाया है। एक रोगी है, वह यह जानता है कि मुझे कौन-सा रोग लगा है और किन उपायों से मिट सकता है ? परन्तु रोग मिटाने के लिए वह कोई उपाय या उपचार नहीं करता है, तो भला उसका रोग कैसे मिट जाएगा? इसी प्रकार एक अन्य रोगी है, उसे रोग लगा है, इसलिए वह अनेक प्रकार के उपचार तो रोग-निवारण के लिए अहर्निश करता रहता है, लेकिन वह यह जानने का जरा भी प्रयत्न नहीं करता कि उसे कौन-सा रोग लगा है ? उस रोग के क्या-क्या लक्षण हैं ? दवा लेने और उपचार करने पर भी यह रोग क्यों बढ़ता जाता है ? वैद्यों द्वारा निर्दिष्ट किन उपायों या उपचारों से वह रोग मिट सकता है ? इन और ऐसी ही बातों की आवश्यक जानकारी के बिना अंधाधुंध या ऊटपटांग उपचार करने मात्र से या दवा लेते रहने से भी ऐसी रोगी का रोग कैसे मिट सकेगा?' तत्त्वों पर आत्मानुभवात्मक सम्यक्त्वमूलक श्रद्धा से ही कर्ममुक्ति एक बात यह भी है कि पूर्वोक्त जिनोपदिष्ट तत्त्वभूत नौ पदार्थों को कोई प्रखरबुद्धि १. देखें-जैनतत्त्वकलिका (आचार्य श्री आत्माराम जी म.) का मन्तव्य, पृ. ८० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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