SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) (५) नये आने वाले दुःखों को रोकने (कर्म-संवर) का उपाय, (६) पूर्व-दुःखों को नष्ट करने का उपाय (कर्म-निर्जरा) तथा (७) अनन्तसुखमय आत्म-स्वस्थदशा का स्वरूप (मोक्ष) क्या है ? जैन कर्मविज्ञान द्वारा प्ररूपित चार तत्त्व अन्य तीन दर्शनों में भी . ___ इस प्रकार कर्मविज्ञान केवल दुःख या रोग का नामोल्लेख करके ही नहीं रह जाता, वह इससे आगे बढ़कर उन दुःखों के आने और दुःख-फल पाने के कारण बताकर आने वाले दुःखों को रोकने, अतीत दुःखों को नष्ट करने तथा दुःखों के आत्यन्तिक रूप से अन्त करने का उपाय भी बताता है। भारतीय दर्शनों में तीन ही दर्शन ऐसे हैं, जो जैनदर्शन प्ररूपित बन्ध, आम्नव, मोक्ष और निर्जरा तत्त्व के समकक्ष प्रकारान्तर से चार तत्त्वों का निरूपण करते हैं। उनमें एक है-योगदर्शन, जो इन चार तत्त्वों को क्रमशः हेय (अनागत दुःख) हेयहेतु (दुःख का कारण) हान (मोक्ष तत्त्व) और हानोपाय (मोक्ष कर्मक्षय का कारण) के नाम से निरूपित करता है। दूसरा है बौद्धदर्शन जिसने पूर्वोक्त चार तत्त्वों का दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग, इन चार आर्य सत्यों के रूप में प्ररूपण किया है। सिर्फ ज्ञान से ही मुक्ति दिलाने वाले दर्शन इन तीन दर्शनों के अतिरिक्त सांख्य, वेदान्त, नैयायिक और वैशेषिक ज्ञेयप्रधान हैं। इन्होंने अपने-अपने मान्य तत्वों के सिर्फ ज्ञान से (जानकारी कर लेने मात्रा से) ही मुक्ति (कर्म, संसार या वासना आदि से छुटकारा) की प्ररूपणा की है। ___सांख्यदर्शन ने तो स्पष्ट कहा है-व्यक्ति जिस किसी आश्रम में हो, जटाधारी हो, मुण्डित हो या शिखाधारी हो, अगर वह (सांख्यदर्शनमान्य) पच्चीस तत्त्वों का ज्ञाता है, तो निःसन्देह मुक्त हो जाता है। वेदान्त दर्शन कहता है-ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं होती। नैयायिक और वैशेषिक भी अपने-अपने दर्शन द्वारा मनोनीत तत्त्वों या गुणों का ज्ञान कर लेने से मोक्ष-प्राप्तिमानते १. जैनतत्त्वकलिका (आचार्य आत्मारामजी म.) से साभार उद्धृत, पृ.७७ २. सत्यान्युक्तानि चत्वारि दुःखं समुदयस्तथा। निरोधो मार्ग एतेषां यथाभिसमयं क्रमः ॥ -अभिधम्मत्थ कोश ६/२ ३. देखें-जैनतत्त्वकलिका में प्रकाशित मन्तव्य पृ.७९ ४. देखें (क) ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा। -भगवद्गीता अ. ४ श्लो. ३७ (ख) पंचविंशति-तत्त्वज्ञो यत्र कुत्राश्रमे रतः । जटी मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नाऽत्र संशयः ॥ -सांख्यदर्शन (ग) 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः' -वेदान्तदर्शन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy