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________________ कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३५७ गन्ध और स्पर्श समझने चाहिए। इष्ट गति के दो अर्थ हैं-(१) देवगति या मनुष्यगति, अथवा (२) हाथी जैसी उत्तम चाल। इष्ट स्थिति का अर्थ है-इष्ट और सहज सिंहासन आदि पर आरोहण। इष्ट लावण्य का अर्थ है-अभीष्ट कान्ति-विशेष या शारीरिक सौन्दर्य। इष्टयशःकीर्ति-विशिष्ट पराक्रम प्रदर्शित करने से होने वाली ख्याति को यश कहते हैं, और दान, पुण्य, परोपकार आदि सत्कार्यों से होने वाली प्रसिद्धि को कीर्ति कहते हैं।' उत्थान आदि छह शब्दों का विशेषार्थ-शरीर संबंधी चेष्टा को उत्थान, भ्रमण आदि को कर्म, शारीरिक शक्ति को बल, आत्मा से उत्पन्न होने वाले सामर्थ्य को वीर्य, आत्मजन्य स्वाभिमान-विशेष को पुरुषकार और अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेने वाले पुरुषार्थ को पराक्रम कहते हैं। ___ इष्टस्वर-वीणा आदि के समान वल्लभ स्वर। कान्तस्वर-कोयल आदि के स्वर के समान कमनीय स्वर। प्रिय-स्वर-इष्टसिद्धि आदि होने पर लोकप्रिय जय-जयकार का बार-बार अभिलषणीय स्वर। मनोज्ञ-स्वर-मनोवांछित लाभ आदि के तुल्य स्वाश्रय में प्रीति उत्पन्न कराने वाला स्वर। . शुभ नामकर्म के स्वतः परतः उदय से होने वाला अनुभाव (फल-विपाक)-जहाँ वीणा, वेणु, गन्ध, ताम्बूल, पट्टाम्बर, सारंगी, हारमोनियम, पालकी, सिंहासन आदि शुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन (अनुभव) किया जाता है, तथा इन वस्तुओं के निमित्त से शुभ नामकर्मोदय से शब्दादि की अभीष्टता व्यक्त होती है, अथवा ब्राह्मी या अन्य औषधि, या आहार के परिणमन स्वरूप अभीष्ट पुद्गल परिणाम का वेदन होता है, वहाँ परतः शुभ नामकर्मोदय से होने वाला फलानुभव समझना चाहिए। अथवा स्वभावतः शुभ मेघ आदि की घटा की छटा को देखकर शुभ पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाए, जैसे कि वर्षाकालीन मेघघटा की छटा देखकर युवतियाँ इष्टस्वर में गान करने में प्रवृत्त हो जाती हैं। इस प्रकार के प्रभाव से शुभ नामकर्म का अनुभाव होता है। यह सब पर-निमित्तक शुभ नामकर्म के उदय से होने वाला फलविपाक है। जब शुभ नामकर्म के पुद्गलों के उदय से इष्टशब्दादि शुभ नामकर्म का वेदन हो, वहाँ स्वतः शुभनामकर्मोदय से होने वाला फलविपाक होता है। अशुभ नामकर्म के स्वतः परतः उदय से होने वाला अनुभाव-शुभ नामकर्म के अनुभाव की तरह जीव के द्वारा बद्ध आदि विशेषणों से विशिष्ट अशुभ नामकर्म के भी १. देखें, वही, पद २३ के १६८४ सूत्र का मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन, पृ. १७-१८, २४, २५ (आ. प्र. स. ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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