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________________ ३५६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) वस्तुतः मोहनीय कर्म का उदय होने पर मनुष्य मोहमुग्ध होकर सम्यक्त्व में पराक्रम नहीं कर पाता, उसके संवर-निर्जरा की, तथा संयम और चारित्र पालन की रुचि, श्रद्धा एवं क्षमता कुण्ठित एवं शिथिल हो जाती है। आत्मा को सम्यक्त्व एवं चारित्र गुणों के कारण जो आत्मिक सुख प्राप्त होना चाहिए उसमें मोहनीय कर्म बाधक बनता है। आयुकर्म का अनुभाव, प्रकार, स्वरूप और कारण-आयुकर्म का पूर्ववत् बद्ध-स्पृष्ट आदि से विशिष्ट अनुभाव (फलविपाक) चार प्रकार का होता है-(१) नारकायु, (२) तिर्यंचायु, (३) मनुष्यायु और (४) देवायु। यह भी स्वतः और परतःदो प्रकार से उदय में आकर फलप्रदान करता है। नारकायुकर्म आदि जिन आयुष्यकर्म के पुद्गलों के उदय से नारकायु आदि कर्म का वेदन किया जाता है, वह स्वतः आयुकर्मवे उदय का फल (अनुभाव) है। जिस पुद्गल या जिन पुद्गलों का अथवा पुद्गल-परिणा' का या स्वभावतः पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है, वहाँ परतः आयुकर्म दे उदय का अनुभाव (फल) है। ___ तात्पर्य यह है कि आयु के अपवर्तन (ह्रास) करने में समर्थ जिस या जिन शस्त्र, दण्ड, पाषाण आदि पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, अथवा विष, नशीली, मारक या शक्ति घातक दवा एवं अन्न आदि के परिणामरूप-पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, उससे भुज्यमान आयु का अपवर्तन (हास) होना आयुकर्म के परतः उदय से होने वाला फल (अनुभाव) है। ___नामकर्म के अनुभावों का निरूपण-नामकर्म के मुख्यतया दो भेद हैं-शुभनामकर्म और अशुभ नामकर्म। पूर्वोक्त बद्ध, स्पृष्ट आदि से विशिष्ट शुभ गति आदि कारणों को लेकर शुभनामकर्म के उदय में आने पर १४ प्रकार का अनुभाव (फल-विपाक) होता है। यथा-(१) इष्ट शब्द, (२) इष्ट रूप, (३) इष्ट गन्ध, (४) इष्ट रस, (५) इष्ट स्पर्श, (६) इष्ट गति, (७) इष्ट स्थिति, (८) इष्ट लावण्य, (९) इष्ट यशोकीर्ति, (१०) इष्ट उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार (पौरुष)-पराक्रम, (११) इष्ट स्वरता, (१२) कान्तस्वरता, (१३) प्रिय स्वरता, और (१४) मनोज्ञ-स्वरता। __इनका स्वरूप इस प्रकार है-इष्ट का अर्थ है-अभिलषित (मनचाहा)। इष्ट शब्दादि-नामकर्म का प्रकरण होने से यहाँ अपने ही अभीष्ट शब्द (वचन), रूप, रस, १. देखें-प्रज्ञापना २३ वाँ पद के १६८३ सूत्र का विवेचन, पृ. १७, २४ (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) २. देखें, वही, पद २३, के १६८३ सूत्र का मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन पृ. १७,२४ (आ. प्र. समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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