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कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३५५
असातावेदनीय कर्म के अष्टविध अनुभाव (फल)-इस कर्म का अष्टविध अनुभाव सातावेदनीय कर्म से विपरीत है। अर्थात्-अमनोज्ञ शब्दादि पांच, तथा मन-वचन-काया में दुःखानुभव ये ८ अनुभाव असातावेदनीय कर्मोदय से होते हैं। विष, शस्त्र, कण्टक आदि पुद्गल या पुद्गलों का जब वेदन किया जाता है, अथवा अपथ्य या नीरस आहारादि पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से यथाकाल होने वाले शीत, उष्ण, आतप आदि रूप पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, तब मन को असमाधि होती है, शरीर को भी दुःखानुभव होता है। तथा तदनुरूप वाणी से भी असाता के उद्गार निकलते हैं। यह परतः असातावेदनीय कर्म का अनुभाव (विपाक) है। जहाँ किसी पर-निमित्त के बिना असातावेदनीय कर्मपद्गलों के उदय से दुःखानुभव (दुःखवेदन) होता है, वहाँ स्वतः असातावेदनीय कर्म का अनुभाव (फल) प्राप्त होता है। निष्कर्ष यह है कि असातावेदनीय कर्म के उदय से असाता (दुःख) रूप फल प्राप्त होता है।'
मोहनीय कर्म का पंचविध अनुभाव-जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट आदि से लेकर पुद्गल-परिणाम तक से युक्त स्वतः परतः या उभयतः उदीरित मोहनीय कर्म के उदय से पांच प्रकार का अनुभाव (फल) बताया गया है-(१) सम्यक्त्व वेदनीय, (२) मिथ्यात्व-वेदनीय, (३) सम्यग्-मिथ्यात्व-वेदनीय, (४) कषाय वेदनीय और (५) नोकषाय वेदनीय। - सम्यक्त्ववेदनीय में सम्यक्त्व प्रकृति के रूप में प्रशम आदि परिणामों का वेदन किया जाता है। जिसका वेदन होने पर दृष्टि मिथ्या हो जाती है, अदेव, कुदेव, कुगुरु अधर्म कुशास्त्र आदि में देवादि की बुद्धि हो जाती है, वहाँ मिथ्यात्व वेदनीय होता है, तथा जिसका वेदन होने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिला-जुला परिणाम उत्पन्न होता है, वहाँ सम्यक्त्व-मिथ्यात्ववेदनीय रूप अनुभाव होता है। जिसका वेदन क्रोधादि कषाय रूप परिणामों का कारण बन जाता है, वहाँ कषाय-वेदनीय रूप अनुभाव होता है। जिसका वेदन हास्यादि रूप नोकषायों के परिणाम का कारण हो, वहाँ नोकषाय-वेदनीय रूप अंनुभाव होता है।
परतः मोहनीय कर्मोदय से होने वाला अनुभाव-जिस पुद्गल-विषय या जिन पुद्गलविषयों (मदिरा, ब्राह्मी, बादाम आदि) से मोहनीय कर्म का फल वेदन किया जाता है, अथवा जिस पुद्गल-परिणाम के योग से मोहादि का वेदन किया जाता है, या देशकाल के अनुरूप आहारादि का परिणमन मोहादि वृद्धि में सहायक हो, वहाँ भी मोहनीय कर्म के फल का वेदन होता है। १. वही, मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन, सूत्र १६८२, पृ. १६,२३ (आ. प्र. समिति, ब्यावर) २. वही, मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन, सू. १६८२, पृ. १६, २३, (आ. प्र. समिति, ब्यावर)
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