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________________ ३५४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) . ही दर्शनावरणीय कर्मोदय से दर्शनगुण की विविध प्रकार से क्षति हो जाती है, जीव देखने योग्य या देखना चाहते हुए भी इन्द्रियगोचर या आत्मा से द्रष्टव्य पदार्थ को भी नहीं देख पाता, देखकर भी नहीं देखता, अथवा उसका दर्शनगुण तिरोहित हो जाता है। न ही आत्मा की दर्शनशक्ति के विषय में सोच सकता है, न ही दर्शनगुण का विकास कर पाता है। दर्शनावरण कर्म के उदय से वह पुद्गल, पुद्गलों या पुद्गल-परिणामों के निमित्त से दर्शन आवृत हो जाता है।' सातावेदनीय कर्म के अष्टविध अनुभाव-वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। वेदनीय कर्म के फलस्वरूप जीव सुख या दुःख का वेदन करता है। सातावेदनीय के आठ अनुभाव (फल) हैं-(१) मनोज्ञ शब्द, (२) मनोज्ञ रूप, (३) मनोज्ञ गन्ध, (४) मनोज्ञ रस, (५) मनोज्ञ स्पर्श, (६) मन का सौख्य, (७) वचन का सौख्य और (८) काया का सौख्य। तात्पर्य यह है कि जीव द्वारा बद्ध आदि सातावेदनीय कर्म के उदय से ८ प्रकार के सुखद फल की प्राप्ति होती है। (१) मनोज्ञ वेणु, वीणा आदि के शब्दों की प्राप्ति, (२) मनोज्ञ रूपों की प्राप्ति, (३) मनोज्ञ इत्र, चन्दन, फूल आदि सुगन्धों की प्राप्ति, (४) मनोज्ञ सुस्वादु रसों की प्राप्ति, (५) मनोज्ञ स्पर्शों की प्राप्ति, (६) मन में सुख की अनुभूति, (७) वचन में सुखानुभूति अथवा जिसका वचन श्रवण करने वाले के कान और मन में आल्हाद उत्पन्न करने वाला हो, और (८) काया से सुखानुभव करना। ये स्व-परनिमित्तक अष्टविध अनुभाव हैं। कभी-कभी सातावेदनीय कर्म के स्वतः उदय होने पर मनोज्ञ शब्दादि (पर-निमित्त) के बिना भी सखसाता का संवेदन होता है। जैसे-तीर्थकर भगवान का जन्म होने पर नारक जीव भी किंचित् काल-पर्यन्त सुख का वेदन (अनुभव) करता है। पर-निमित्तक सातावेदनीय कर्म के उदय प्राप्त अनुभाव (फल) का स्वरूप इस प्रकार है-जिन पुष्पमाला, चन्दन आदि एक या अनेक मनोज्ञ पुद्गलों का आसेवन (वेदन) किया जाता है, अथवा विशिष्ट देश, काल, वय एवं परिस्थिति के अनुरूप मनोज्ञ आहार-परिणतिरूप पुद्गल-परिणाम वेदा (भोगा) जाता है; अथवा स्वभाव से पुद्गलों के शीत, उष्ण, आतप आदि की वेदना के प्रतीकार के लिए यथावसर अभीष्ट पुद्गल-परिणाम (गर्म दवा, ठंडाई, कूलर, हीटर आदि) का सेवन किया जाता है। जिससे मन को समाधि-शान्ति (प्रसन्नता) प्राप्त होती है। यह पर-निमित्तक सातावेदनीय कमों के उदय से सातावेदनीय कर्म का अनुभाव है। १. प्रज्ञापना सूत्र प्रमेय बोधिनी टीका भा. ५, पृ. १९० २. देखें-प्रज्ञापना सूत्र खण्ड ३, पद २३, के पंचम अनुभाव द्वार का पाठ, पृ. १५, १६,२२, विवेचन। (आ.प्र. समिति, ब्यावर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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