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________________ ३५८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) १४ प्रकार के अनुभाव होते हैं। किन्तु ये सब अनुभाव शुभ से विपरीत हैं। जैसे-अनिष्ट शब्दादि। गधा आदि के अनिष्ट शब्द, मृतकलेवर, दुर्गन्धपूर्ण नाली आदि से उत्पन्न अनिष्टगन्ध, कटू औषधि या अन्य कड़वी, तीखी वस्तु के स्वाद से अनिष्ट रस, अपने या दूसरे के काले कलूटे, कुबड़े, कुरूप, लंगड़े आदि को देखकर होने वाला अनिष्ट रूप, तथा उष्ण, रूक्ष, भारी, कठोर वस्तु के छूने से अनिष्ट स्पर्श रूप अशुभ पुद्गल का या पुद्गलों का वेदन होता है, यही अशुभ नामकर्म का अनुभाव है। अथवा विष आदि आहारपरिणाम रूप जिस पुद्गलपरिणाम का, अथवा स्वभावतः वज्रपात आदि रूप जिस पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, तथा उसके प्रभाव से अंशुभ नामकर्म के फलस्वरूप अनिष्ट स्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परतः अशुभ नामकर्मोदय से होने वाला अनुभाव (फलविपाक) है। जहाँ नामकर्म के उदय से अशुभ कर्म पुद्गलों से अनिष्ट शब्दादि का वेदन होता है, वहाँ स्वतः अशुभ नामकर्मोदयजनित अनुभाव समझना चाहिए।' उच्चगोत्र कर्म के अनुभाव-जीव के द्वारा बद्ध आदि से विशिष्ट उच्चगोत्र कर्म का अनुभाव (फल) आठ प्रकार का है-(१) जातिविशिष्टता, (२) कुलविशिष्टता, (३) बलविशिष्टता, (४) रूपविशिष्टता, (५) तपविशिष्टता, (६) श्रुतविशिष्टता (७) लाभविशिष्टता और (८) ऐश्वर्यविशिष्टता।२ । उच्चगोत्रानुभाव : कैसे-कैसे, किन-किन कारणों से ?-उस-उस शुभद्रव्य या मनोज्ञ द्रव्य के संयोग से अथवा राजा आदि विशिष्ट पुरुषों के संयोग से नीच जाति और कुल में पैदा हुआ व्यक्ति भी जातिसम्पन्न और कुलसम्पन्न होकर इस कर्म के उदय से जातिविशिष्टता और कुलविशिष्टता का अनुभाव (फल) प्राप्त कर लेता है। मल्ल आदि किसी विशिष्ट पुरुष के संयोग से अथवा व्यायाम-प्राणायामादि के योग से, अथवा शक्तिवर्द्धक औषधि आदि के योग से उच्चगोत्रकर्मोदय होने पर शारीरिक-मानसिक बल सम्पन्न होकर व्यक्ति बल-विशेषता का अनुभाव प्राप्त कर लेता है। इस कर्म के उदय से विशेष प्रकार के वस्त्रों और अलंकारों से, शरीर के स्वाभाविक सौष्ठव एवं डील-डौल से रूपसम्पन्नता प्राप्त करके व्यक्ति रूप-विशेषता का अनुभव करता है। पर्वत की चोटी पर खड़े होकर आतापना आदि तपश्चरण से तप की विशेषता का अनुभव करता है। धन, सत्ता, पद, प्रभुत्व आदि के संयोग से ऐश्वर्य-विशेषता का अनुभाव प्राप्त होता है। बहुमूल्य उत्तम रल आदि अथवा किसी मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति से लाभ की विशेषता का अनुभाव प्राप्त होता है। रमणीय, शान्त. एकान्त, पवित्र एवं जनसाधारण के आवागमन से रहित स्थान में स्वाध्याय करने से व्यक्ति को श्रुतविशेषता का अनुभाव प्राप्त होता है। १. २. वही, खण्ड ३, पद २३, सू. १६८४ (१-२) का मूल, अर्थ और विवेचन, पृ. १८, २४, २५ वही, खण्ड ३, पद २३, सू. १६८५ (१), का मूलपाठ और अर्थ, पृ. १८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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