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कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३५१ और नेत्र विषयक लब्धि और उपयोग का, तथा चतुरिन्द्रिय जीवों के श्रोत्रविषयक लब्धि और उपयोग आवरण होता है। ज्ञानावरणीय कर्म के त्रिविध उदय से प्राप्त निरपेक्ष एवं सापेक्ष फल
ज्ञानावरणीय का उदय तीन प्रकार से होता है-(१) स्वयं ही उदय को प्राप्त, (२) दूसरे के द्वारा उदीरित अथवा (३) स्व-पर दोनों के द्वारा उदीरित। इन तीनों में से किसी भी प्रकार से ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से इन्द्रियों की लब्धि और उपयोग का आवरण रूप फल प्राप्त होता है। यह उदय भी सापेक्ष और निरपेक्ष दो प्रकार होता है।
ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलों का निरपेक्ष उदय होने पर जीव अपने जानने योग्य (ज्ञातव्य) पदार्थ का ज्ञान नहीं कर पाता, जानने की इच्छा होने पर भी जानने में समर्थ नहीं होता; अथवा पहले जाने हुए पदार्थ को बाद में ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से नहीं जान पाता; या फिर ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव का ज्ञान तिरोहित (लुप्त) हो जाता है।
सापेक्ष उदय कैसे होता है, इसे स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-ज्ञान का उपघात करने में समर्थ तथा दूसरे के द्वारा फैंके गए या प्रहार करने में सक्षम काष्ठ, खड्ग आदि एक पुद्गल या बहुत-से पुद्गलों से ज्ञान का, या ज्ञान परिणति का उपघात (नाश) हो जाता है। अथवा भक्षित आहार या सेवित पेय पदार्थ का परिणाम (पाचन आदि) अति दुःख जनक होता है; तब भी ज्ञानपरिणति का उपघात हो जाता है। या फिर स्वभावतः तीव्र शीत, तीव्र उष्ण या धूप आदि के रूप में परिणत पुद्गल-परिणाम का जब वेदन (अनुभव) किया जाता है, तब भी इन्द्रियों को क्षति पहुँचने से ज्ञानपरिणति का उपघात होता है। इन सापेक्ष कारणों से जीव इन्द्रियगोचर ज्ञातव्य वस्तु को नहीं जान पाता। यह सब ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध का फल (अनुभाव) है।' दर्शनावरणीय कर्म के नौ प्रकार के अनुभाव (फल) .. इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के अनुभाव के भी बद्ध, स्पृष्ट आदि से लेकर पुद्गल-परिणाम तक के वे ही पूर्वोक्त कारण मूलपाठ में बताए गए हैं। दर्शनावरणीय कर्म के अनुभाव (फल) नौ प्रकार के बताए हैं-(१) निद्रा, (२) निद्रा-निद्रा, (३) प्रचला, (४) प्रचला-प्रचला, (५) स्त्यानर्द्धि, एवं (६) चक्षुदर्शनावरण, (७) अचक्षुदर्शनावरण, (८) अवधिदर्शनावरण और (९) केवल-दर्शनावरण।
पांचों प्रकार की निद्राओं का वेदन दर्शनावरणीय कर्म के उदय होने पर इस कर्म के फल के रूप में होता है। निद्रा आदि में गति, स्थिति, भव, पुद्गल और पुद्गल१. देखें-प्रज्ञापना-तृतीय खण्ड के २३वें कर्म प्रकृति पद के अनुभाव द्वार के सू. १६७९ का
विवेचन (जैनागम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. २१
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