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३५0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
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उपचित, आपाक (किञ्चित् पाक) को प्राप्त, विपाक-प्राप्त, फल को प्राप्त, तथा उदयप्राप्त, एवं कृत, निष्पादित और परिणामित हो,' तथा वह कर्म या तो स्वयं के द्वारा उदीरित हो, या दूसरे के द्वारा उदीरित (उदीरणा-प्राप्त) हो, या फिर दोनों (स्व-पर) द्वारा उदीरणाप्राप्त हो। फिर वे कर्मविपाक (अनुभाव) गति, स्थिति, भव, पद्गल और पुद्गलों के परिणाम (इन पंच विध निमित्तों) को पाकर विभिन्न प्रकार के हो जाते हैं। .. ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव (फल) दस प्रकार का कैसे-कैसे? .
___ सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म को ही लें। ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव (फल-विपाक) पूर्वोक्त बद्ध से लेकर पुद्गल परिणाम के कारणों को लेकर १0 प्रकार का बताया गया है-(१) श्रोत्रावरण, (२) श्रोत्र विज्ञानावरण, (३) नेत्रावरण, (४) नेत्र विज्ञानावरण, (५) घ्राणावरण, (६) घ्राणविज्ञानावरण, (७) रसावरण, (८) रस विज्ञानावरण, (९) स्पर्शावरण और (१०) स्पर्श विज्ञानावरण।
इस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के बद्ध आदि कारणों से उदय में आने (फलोन्मुख होने पर) श्रोत्रावरण आदि १0 प्रकार का आवरण रूप अनुभाव (फल-विपाक) बताया
इन दश विध आवरणों में दो प्रकार का आवरण है-एक है-लब्धि (क्षयोपशम) का आवरण, और दूसरा है-उपयोग का आवरण। श्रोत्र (कान) आदि पाँचों ही इन्द्रियों के क्षयोपशम (लब्धि) रूप और उपयोग रूप आवरण ही ज्ञानावरणीय कर्म का फल विशेष है। जिनका शरीर कुष्ठ आदि रोग से उपहत हो गया हो, उन्हें स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण रूप फल प्राप्त होता है। जो जीव जन्म से अन्धे, लूले, नंगड़े, बहरे, गूंगे या टूटे आदि हैं, या बाद में हो गए हों, उन्हें नेत्र, श्रोत्र, रसना, स्पर्श
आदि इन्द्रियों से सम्बन्धित लब्धि और उपयोग का आवरण रूप फल प्राप्त हुआ है, ऐसा समझ लेना चाहिए।'
इनमें से एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से श्रोत्र, नेत्र, घ्राण, और रसनाविषयक लब्धि और उपयोग आवृत होता है। द्वीन्द्रिय जीवों के श्रोत्र, नेत्र और घ्राण-सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। त्रीन्द्रिय जीवों के श्रोत्र
१. बद्ध, स्पृष्ट आदि पदों के अर्थ के लिए देखें-प्रज्ञापना सूत्र। २. देखें, प्रज्ञापनासूत्र (तृतीय खण्ड) के २३३ पद के पंचम अनुभाव द्वार के सूत्र १६७९ का
अनुवाद एवं मूलपाठ (आ. प्र. समिति, ब्यावर) पृ. १४ ३. (क) देखें-प्रज्ञापनासूत्र के २३वें पद के स्. १६७९ के उत्तरार्द्ध का अनुवाद एवं विवेचन
(आ. प्र. स. व्यावर) पृ. १४,२१ (ख) जैन तत्व कलिका, कलिका ६, पृ. १७७
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