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________________ ३३४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) . . अपने पापकृत्यों का कटु फलभोग प्राप्त करता है। महाभारत (शान्तिपर्व) में कहा गया है-“अधर्म किसी भी अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता। पाप कर्म कर्ता अवश्य ही यथासमय' कृतकर्म का फल भोगता (पाता) है।" सन् १४३0 ई. में ट्रांसलवानिया के पहाड़ी प्रदेशों के राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने वाला 'काउंट ड्रोक्यूला' एक नर-पिशाच शासक था। उसने १४७६ तक शासन किया। ४६ वर्षों तक उसने ऐसी अमानुषिक क्रूरताएँ बरतीं कि इतिहासकारों ने उसे ‘लाट दि इम्पेलर'-अर्थात्-मनुष्य के शरीर को छेदने वाला कहा। वह सजा देने के लिए क्रूरतम तरीके अपनाता था। ___ लोग यातना और पीड़ा से चिल्लाते रहते, उन्हें देखकर ड्रोक्यूला अत्यन्त आनन्द विभोर होकर भोजन करता। किसी के द्वारा दया की याचना करने पर भी वह अधिकाधिक क्रूरतापूर्वक नृशंस हत्याओं के नये-नये ढंग अपनाता। कभी-कभी वह दूध पीते बच्चों को उनकी माताओं के सीने पर ही कील से जड़वा देता, और उन मृत बच्चों का ही मांस खाने के लिए मजबूर कर देता। एक बार उसने अपने राज्य के सभी गरीब, वृद्ध और रुग्ण लोगों को सेना द्वारा इकट्ठा करवाकर उन्हें जिंदा जलवा दिया। ___इन क्रूरतम पापकर्मों का फल उसे इसी जीवन में मिल गया। ड्रोक्यूला ने अपने जीवन काल में जिन लोगों की तड़फा तड़फा कर नृशंस हत्या की थी, उससे भी भयंकर तरीके से उसे मारा गया। तुर्की सेनाओं ने जब ट्रांसलवानिया को जीतकर ड्रोक्यूला को बंदी बना लिया तो उसके शरीर से प्रतिदिन मांस का एक टुकड़ा काट लिया जाता और वही उसे कच्चा चबाने के लिए मजबूर किया जाता।२ । कापेज ने अपने कृतपापों का फल इसी जन्म में भोगा लिपजिग (जर्मनी) के सेशनकोर्ट का न्यायाधीश 'बेनेडिक्ट कार्पेज (१६२० से १६६६ तक) भी अत्यन्त क्रूर और कठोर प्रकृति का था। उसने भी अपने ४६ वर्ष के न्यायाधीश काल में ३० हजार पुरुषों और २२ हजार स्त्रियों को फांसी पर चढ़ाया। छोटे-से-छोटे अपराध तक की सजा वह मृत्युदण्ड दे देता था। स्त्रियों को तो उसने जादू-टोने के सन्देह तक में पकड़वाकर फांसी पर चढ़ा दिया। दया या क्षमा शब्द तो उसने कहीं सीखा ही नहीं। फिर भी वह स्वयं को धार्मिक कहता था। मागा -महाभारत, शान्तिपर्व अ. २९८ १. (क) “नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति। कर्ता खलु यथाकालं ततः समभिपद्यते॥" (ख) अखण्डज्योति, दिसम्बर १९७८ से संक्षिप्त २. अखण्डज्योति, दिसम्बर १९७८ से पृ. १७-१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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