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________________ कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ? ३३३ यात्रा कर रहे थे। जैन भाई ने सिक्ख को जीवदया और मांसाहार त्याग के विषय में काफी समझाया। पर वह किसी भी हालत में ये सब बातें मानने को तैयार नहीं हुआ।जब दोनों बस से उतरे तो उस सिक्ख ने एक खरगोश का बच्चा पकड़ लिया। जैन भाई ने उसे छोड़ देने को कहा, फिर भी वह नहीं माना और छुरा निकाल कर ज्यों ही उस खरगोश के बच्चे को मारने के लिए उद्यत हुआ, त्यों ही वह एकदम उछलकर भाग गया, वह छुरा उक्त सिक्ख के हाथ पर लगा। हाथ का अगला भाग पंजे सहित कटकर अलग हो गया। सरदारजी लहूलुहान होकर वहीं गिर पड़े और बेहोश हो गए। जैनभाई ने कहीं से तुरंत डिटोल लाकर उनका घाव धोया और मरहम-पट्टी की। परन्तु सरदारजी का वह घाव ठीक नहीं हुआ। वही घाव उसका जानलेवा बन गया।' यह है पापकर्म के फल के तत्काल उपभोग का ज्वलन्त उदाहरण। एक महीने बाद ही कुकर्म का फल भोगना पड़ा दूसरी एक प्रत्यक्ष फलभोग की घटना है जो अगस्त १९६७ के कल्याण मासिक पत्र में प्रकाशित हुई थी। जिला बुलन्दशहर में दादरी के पास एक गूजरों के गाँव में एक पहलवान रहता था। परिवार में वह अकेला था। उसके घर में माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र कोई भी न था। वह एक भैंस रखता था, उसका दूध पीता था। वह घर से जब बाहर जाता तो पीछे से एक कुत्ता दीवार लाँघकर आग पर भगौने में रखे हुए दूध को पी जाता। कुछ दिन बीते। एक दिन पहलवान जब घर पर ही था कि कुत्ता आया और दूध पीने लगा। पहलवान चाहता तो उसे डराकर भगा सकता था, किन्तु उसने आगा-पीछा कुछ न सोचकर चर्खे में से एक तकुआ निकाला, उसे गर्म किया और तुरंत उस कुत्ते की आँखों में घोंप दिया। उसकी आँखों से खून की धारा बह निकली । कुत्ता १५.दिनों तक उसकी असह्य पीड़ा भोगकर मर गया। एक दिन वही पहलवान यमुना नदी के तट से करीब एक मील दूर दरांती से झूड (घास) काट रहा था कि अकस्मात दरांती उसकी आँखों में लग गई। दोनों आँखें तीखी दरांती की धार से फूट गईं। वह अन्धा हो गया। एक महीने तक वह उसकी भयानक पीड़ा भोगकर मास के अन्तिम दिन मर गया। उसे अपनी करनी का दुगुना फल हाथों हाथ भोगना पड़ा। क्रूरकर्मा ड्रोक्यूला को उसी जन्म में कटुफल भोगना पड़ा जो मनुष्य सत्ता के मद में आकर दुष्ट संगति, दुराचार, आसुरी क्रियाकलाप और हिंसादि पाप-प्रवृत्तियों को अपनाता है, वह व्यक्ति प्रायः इसी जन्म में देर-सबेर १. 'जनकल्याण' (मासिक गुजराती) से २. 'कल्याण' अगस्त १९६७ के अंक से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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