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________________ ३२० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) कर्म का फलभोग तत्काल नहीं; क्यों और कैसे? ____ परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उस कर्म का फलभोग भी तत्काल हो जाता है। किसी भी क्रिया का परिणाम तत्काल मिलने पर भी उसका उपभोग लम्बे समय तक, अथवा कभी-कभी कई महीने, वर्ष, या युगों में जाकर होता है। अर्थात्-कर्म के अर्जन का काल क्षणभर का होता है, किन्तु उस अर्जित, संचित या संगृहीत कर्म का फलभोग एकान्ततः उसी समय नहीं होता। अधिकांश अर्जित एवं बद्ध कर्म उसी समय फल देने में समर्थ नहीं होते। दूसरे शब्दों में कहें तो-वे संचित कर्म या कर्मपरमाणु, जिस क्षण में संचित होते हैं या बद्ध होते हैं, अथवा आम्रवरूप में आते हैं, उसी क्षण वे प्रायः फलभोग नहीं करा सकते। कर्मों का अर्जन, क्रिया, प्रवृत्ति अथवा आसव का मुख्य फल होता है वह तो प्रवृत्ति काल में ही प्राप्त हो जाता है। अर्जित कर्मपुद्गल कब तक साथ रहेंगे, कब वे सक्रिय होंगे? कब तक सक्रिय होकर फलभोग कराते रहेंगे? इसका नियम कर्म के अर्जन के नियम से भिन्न है।' आक्षेप और समाधान इस अन्तर को न समझकर कई तथाकथित तत्काल फलभोगवादी कर्मविज्ञान पर यह आक्षेप कर देते हैं कि ".....अगर अच्छे कार्य तत्काल फल लाते हैं तो अच्छे आदमी को सुख भोगना चाहिए और बुरे कार्यों का परिणाम बुरा है तो तत्काल बुरे आदमी को दुःख भोगना चाहिए।' वस्तुतः कर्मफल और कर्मफल-भोग के अन्तर को न समझने के कारण ही ऐसा घपला होता है। जैनकर्म-विज्ञान ने इस तथ्य को या इन दोनों के अन्तर को बहुत ही बारीकी से पकड़ा है। कभी-कभी कर्म-फलोपभोग तत्काल नहीं; क्यों और कैसे? यह तो आप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि कोई व्यक्ति कपड़ा बुनता है तो उसे बुनने का फल तो तत्काल मिल जाता है, किन्तु कपड़ा पूर्णरूप से तैयार होने में, तथा पहनने लायक होने में काफी समय लग जाता है। एक विद्यार्थी पढ़ाई करना शुरू करता है, तब उसे पढ़ाई करने का परिणाम तो तत्काल मिल जाता है, किन्तु उसे एम.ए. तक पहुँचने में तथा उस पढ़ाई के फल का उपभोग करने यानी व्यावहारिक जीवन में उस पढ़ाई के द्वारा धनार्जन करने, नौकरी करने आदि फलभोग तो कई वर्षों बाद मिलता है। दण्ड-बैठक करने वाला, या कुश्ती लड़ना सीखने वाला तत्काल ही पहलवान नहीं बन जाता। इसी १. देखें-वही, सारांश ग्रहण पृ. ४४ २. देखें-जिनवाणी कर्मसिद्धान्त में आचार्य रजनीश का लेख पृ. २७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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