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________________ कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ? ३१९ चार्वाक ने कर्म सिद्धान्त को ही नहीं माना तो कार्य-कारण सिद्धान्त को मानने का सवाल ही नहीं उठता। उसने प्रतिपादित किया कि “मनचाहा खाओ, पीओ और मौज करो, परलोक, परमात्मा, स्वर्ग-नरक आदि कुछ नहीं है। तुम ही प्रत्यक्ष देख लो न, जो बुरे कर्म कर रहा है, वह अच्छा फल भोग रहा है।' और जो अच्छे कर्म कर रहा है, वह दुःख पा रहा है, अभाव-पीड़ित हो रहा है। चोर चैन की वंशी बजा रहा है और ईमानदार, साहूकार या सज्जन पुरुष दुःख की रातें काट रहा है।'' परन्तु जैन कर्मविज्ञान ने इन दोनों का निराकरण करके कार्य-कारण सिद्धान्त की वेदी पर कर्म और कर्मफल के परस्पर सम्बन्ध को अकाट्य और चिरन्तन सिद्धान्त घोषित किया है। परन्तु जैसा कि तत्कालफलवादी कहते हैं-'इधर कर्म किया, उधर उसका फल मिला'; इस एकान्त मान्यता को जैनकर्म-विज्ञान इस रूप में स्वीकार नहीं करता। जैनकर्मविज्ञान क्रिया का फल तो तत्काल मानता है, किन्तु ....... जैन कर्मविज्ञान इस रूप में तत्कालफलवादी सिद्धान्त को अवश्य मानता है कि जीव जब भी कोई क्रिया या प्रवृत्ति करता है, तत्काल या तो आसव के रूप में कर्म का अर्जन हो जाता है, या फिर कर्म के साथ रागद्वेषादि हों तो तत्काल बन्ध के रूप में कर्म का अर्जन हो जाता है। प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति का फल कर्म का अर्जन करना है। ___क्रियाए कर्म' यह सिद्धान्त सूत्र बताता है, जिस क्षण कोई प्रवृत्ति या क्रिया होती है, उसी क्षण उस का फल प्राप्त हो जाता है-कर्मानव के रूप में या कर्मबन्ध के रूप में; क्योंकि प्रत्येक क्रिया परिणाम को साथ में लेकर चलती है। क्रिया अभी करें और उसका परिणाम-फल बाद में मिले, ऐसा नहीं होता। वह तत्काल मिलता है। आप क्रिया करें अभी और परिणाम मिले-छह महीने या वर्ष दो वर्ष बाद अथवा सौ वर्ष या हजार वर्ष बाद, ऐसा नहीं होता। क्रिया और फल में अन्तराल इतना नहीं हो सकता। हां, ये दो काल अवश्य माने जाते हैं-एक है क्रिया का काल दूसरा है-कर्मानव या कर्मबन्ध का काल। परन्तु ये काल इतने सूक्ष्म हैं कि सिर्फ एक दो समय का ही अन्तराल रहता है। कर्मबन्ध या कर्मार्जन तो तत्काल; किन्तु फलभोग प्रायः तत्काल नहीं ___ आशय यह है कि कर्म का बन्ध अथवा कर्म-परमाणुओं का अर्जन तत्काल हो जाता है, क्रिया होने के साथ ही। ऐसा कदापि नहीं होता कि क्रिया या प्रवृत्ति अभी हो रही है और कर्मानव या कर्मबन्धा दस-बीस वर्ष बाद हो। १. वही, पृ. २७४ २. कर्मवाद से भावांश ग्रहण पृ. ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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