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________________ कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ? ३१७ उनके चाहने-न चाहने से कर्मफल सहज ही टल नहीं सकता। सभी कर्मफल कृतकर्मानुसार ही होते हैं। अशुभ कर्मबीज के फल भी तदनुसार अशुभ ही होंगे। चाहे व्यक्ति बाहर से कितना ही भला, शरीफ एवं सफेदपोश बना फिरे, लोगों पर अपने धर्मात्मापन की छाप लगाने के लिए वह कितने ही लम्बे चौड़े लच्छेदार भाषण झाड़ दे, अध्यात्म और वैराग के प्रवचनों की झड़ियाँ बरसा दे, परन्तु अन्तर में दम्भ, माया, कपट, पापकर्म से लिप्तता और ठगी होगी तो व्यक्ति को उसके उन पाप कर्मों का फल जन्म-जरा-मृत्युरूप दुःखों के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ता है।' कर्म के फल से बचने या उसका रूपान्तर करने का नियम यह बात दूसरी है कि उन पापकर्मों के उदय में आने से पहले ही व्यक्ति संचित अशुभ कर्मों को आलोचना आत्म-निन्दना (पश्चात्ताप), गर्हणा (गुरुजनों की साक्षी में प्रकटीकरण) प्रायश्चित्त, तप एवं प्रत्याख्यान (त्याग) द्वारा उन पाप कर्मों का फल भोग करके शुद्धीकरण कर ले, पापकर्मों को पुण्यकर्मों में बदल दे। परन्तु निकाचित रूप से बद्ध कर्मों का फल तो उसी रूप में भोगना पड़ता है। उसके फलभोग में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इसलिए सर्वसामान्य सिद्धान्त यह है कि कोई भी कर्ता न तो कर्म के फलों से बच सकता है और न ही किसी स्थिति में फल कर्मानुसार होने से बच सकता है। कर्मफल के नियम का हार्द यही है कि कोई भी कृतकर्म निष्फल नहीं जाता और कोई भी परिणाम (कार्य) कारण के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। अच्छे परिपाक की इच्छा करने वाला अच्छे कर्म नहीं करता तो वह वैसा परिणाम भी नहीं पा सकता। तत्कालफलवादियों का कुतर्क परन्तु कर्म और कर्मफल के इस कार्य-कारण सम्बन्ध सिद्धान्त पर बहुत-से बुद्धिवादी अथवा चार्वाक दर्शन के समर्थक लोग उंगली उठाते हैं कि यदि ऐसा है तो संसार में बहुत-से वर्तमान में पापकर्म-परायण व्यक्ति सुख भोगते और पुण्यकर्म-परायण अथवा अहिंसादि धर्माचरणरत लोग दुःख भोगते दिखाई देते हैं। कार्य और कारण-कर्म और उसका प्रतिफल यदि परस्पर जुड़े हैं तो बुरे लोगों का सुखी होना और भले लोगों का दुःखी होना, पूर्वोक्त सिद्धान्त सम्मत कैसे समझा जाए? अच्छे कर्मों का तत्काल अच्छा फल और बुरे कर्मों का तत्काल बुरा फल मिलना चाहिए न? ___तत्कालफलवादी नास्तिक अथवा तत्काल फल न मिलने पर सत्कर्म से विमुख और असत्कर्म में डूबते हुए अधिकांश व्यक्ति कर्मविज्ञान अथवा कर्म के अस्तित्व पर १. देखें हरिवंशपुराण (उग्र. अभि. २५) में___ इह वा प्रेत्य वा राजंस्त्वया प्राप्तं यथा तथा। . आत्मनैव कृतं कर्म ह्यात्मनैवोपभुज्यते॥ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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