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________________ ३१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) दूसरी बात यह है कि स्वकृत कर्मों का फल माने बिना जगत् की विभिन्नता और विचित्रता सिद्ध नहीं हो सकती। कर्मों के फलभोग की विभिन्नता के कारण ही प्राणिवर्ग विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं । सूत्रकृतांग टीका में कहा गया है - "जिस प्रकार वृक्षों का मूल सींचने पर उनकी शाखाओं में फल लगते हैं, उसी प्रकार इस जन्म में किये हुए कर्मों का फल भोग आगामी जन्म में होता है। इसी प्रकार अन्य जन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म संचित किया है, उस स्व-स्वकृत कर्म के परिणाम (फल) को सुर या असुर कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता।” अतः इहजन्मकृत कर्म का फल अगले जन्म में तथा पूर्वजन्म में कृतकर्म का फल इस जन्म में अवश्य ही वह जीव भोगता है, जिसने कर्म किया है। अतः कर्म यथासमय फल देते ही हैं। " इतने सब विवेचन से यह स्पष्ट है कि मनुष्य चाहे एकान्त में छिपकर भी पापकर्म करे, अथवा प्रकट में खुल्लमखुल्ला पापकर्म का आचरण करे, दोनों ही स्थितियों में कर्म टेपरिकार्डर के केसेट में अंकित वक्ता की वाणी की तरह कार्मणशरीर में अंकित हो जाता है। जिस प्रकार उस टेप को व्यक्ति जब भी बजाएगा, पुनः पुनः वही वाणी अभिव्यक्त होती है, उसी प्रकार कार्मणशरीर द्वारा पूर्वकृतकर्मशरीर द्वारा पूर्वकृत कर्मफलरूप में पुनः पुनः आते रहते हैं। यह सत्य है कि कर्म और उसके फल का सम्बन्ध कारण-कार्यवत् है। कारण उपस्थित हो तो कार्य अवश्य ही उपस्थित होता है। जहाँ प्रकाश या ताप का अनुभव होता है, वहाँ उसके कारणरूप सूर्य, अग्नि या बिजली का अस्तित्व अवश्य ही माना जाता है। जहाँ जीव द्वारा सुखरूप या दुःखरूप फल भोग किया जाता है, वहाँ उसकी पृष्ठभूमि में अवश्य ही पूर्वकृत कर्म होता है । परन्तु अधिकांश प्राणी सुखोपभोग के लिये तो लालायित रहते हैं, परन्तु दुःखरूप फलोपभोग के लिए विरले ही तत्पर रहते हैं । परन्तु (ख) यदाचरति कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् । तदेव लभते भद्रे ! कर्ता कर्मजमात्मनः ॥ (ग) अचोद्यमानानि यदा पुष्पाणि च फलानि च। तत्कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम् ॥ (घ) यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् । एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति ॥ १. यदि क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते । मूलसिक्तेषु वृक्षेषु फलं, शाखासु जायते ॥ - वाल्मीकि रामायण अयो. स. ६३ Jain Education International - महाभारत अनु. अ. ७/२२-२४ यदुपात्तमन्यजन्मनि शुभाशुभं वा स्वकर्मपरिणत्या तच्छक्यमन्यथा नो कर्तुं देवासुरैरपि ॥ - सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र २८९ में उद्धृत -महाभारत For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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