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कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ?
भोगे ही) अन्तर्मुहूर्त्त में हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि क्रमशः बद्ध कर्मों का क्रमशः वेदन (फलभोग) नहीं होता, अतः 'वेदना' नाम का कोई तत्त्व मानने की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार 'वेदना' का अभाव सिद्ध होने पर 'निर्जरा' का अभाव तो स्वतः सिद्ध हो जाता है।
किन्तु अनेकान्तवादी जैन दर्शन ऐसा नहीं मानता। उसका कहना है कि तपश्चर्या और प्रदेशानुभव के द्वारा कतिपय कर्मों का ही क्षपण (निर्जरा) होता है, समस्त कर्मों का नहीं। उन्हें तो उदीरणा और उदय के द्वारा कर्म को फलोन्मुख करके भोगना (वेदनअनुभव करना) होता है। आगम में भी कहा है- पहले अपने द्वारा कृत (आचरित) दुष्कर्मों तथा दुष्प्रतीकार्य कर्मों (पापकर्मों) का वेदन (फलभोग) करके ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं ।" इस प्रकार वेदना (कर्मफल भोग) का अस्तित्व सिद्ध होने पर निर्जरा का अस्तित्व तो स्वतः सिद्ध हो जाता है । "
इस स्पष्टीकरण से उन लोगों के विचार का भी निराकरण हो जाता है, जो यह सोचकर निःशंक होकर पापकर्म करते रहते हैं कि वेदना (कर्मफल भोग) का अस्तित्व नहीं है, न ही कर्म फलदाता कोई ईश्वर नजर आता है, कर्म अपना फल स्वयं नहीं दे सकते; इसलिए हमें कर्मफल भोगना नहीं पड़ेगा। उन्हें चेतावनी देते हुए महाभारतकार कहते हैं-" हे भाई! इसमें कोई संशय नहीं है कि पापकर्म का फल समय आने (काल पक जाने) पर कर्ता अवश्यमेव पाता है।" वाल्मीकि रामायण में भी कहा गया है- “हे भद्रे ! कर्त्ता जो भी शुभ या अशुभ आचरण करता है, उस कर्म का फल उसी के अनुरूप प्राप्त करता है।” महाभारत अनुशासनपर्व में इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है- “जैसे पुष्प और फल बिना ही किसी प्रेरणा से अपने-अपने समय पर पुष्पित-फलित हो जाते हैं, उस काल का वे अतिक्रमण नहीं करते, वैसे ही पूर्वकृत कर्म भी किसी की प्रेरणा के बिना (फल देने में) अपने समय का अतिक्रमण नहीं करते। वे समय पर फल अवश्य देते हैं। " हजारों गायों के झुंड में बछड़ा जैसे अपनी मां को (जान) पहचान लेता है; वैसे ही पूर्वकृत कर्म भी कर्ता का स्वयं अनुगमन करते हैं।"२
१. (क) देखें - णत्थि वेयणा निज्जरा वा, णेवं सण्णं निवेस |
अथ वेणा निज्जरावा, एवं सण्णं निवेसए । "
-सूत्र कृतांग श्रु. २ अ. ५ का अनुवाद और विवेचन, पृ. १५३, १५७
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(ख) जे अन्नाणी कम्मं खवेइ, बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥
(ग) “पुव्विं दुचिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेइत्ता । "
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२. (क) अवश्यमेव लभते फलं पापस्य कर्मणः। भर्तः ! पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः ॥”
( आ. प्र. समिति, ब्यावर )
- सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र ३७७ से ३७९ तक
- महाभारत वनपर्व अ. २०८
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