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________________ ३१२. कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) करता है, तथा प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही मनन-चिन्तन करता है। प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही विद्वान होता है, (एक के बदले में दूसरा कोई विद्वान नहीं बनता ); प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने सुख-दुःख का वेदन करता है। अतः पूर्वोक्त प्रकार से अन्यकृत कर्म का फल अन्य नहीं भोगता, तथा प्रत्येक व्यक्ति के जन्म मरणादि भिन्न-भिन्न हैं, इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञातिजनों का संयोग दुःख से रक्षा करने या पीड़ित मनुष्य को शान्ति या शरण देने में समर्थ नहीं है। कभी क्रोधादिवश या मरणकाल में, मनुष्य स्वयं ज्ञातिजनों के संयोग को पहले से छोड़ देता है। अथवा कभी ज्ञाति संयोग भी ( मनुष्य के दुर्व्यवहार- दुराचरणादि देखकर) मनुष्य को पहले ही छोड़ देता है ।"" 9. "एवामेव णो लद्धपुव्वं एवमेव णो द्धपु " अण्णस्स दुक्ख अण्णो नो परियाइयति; अन्त्रेण कडं कम्मं, अन्नो नो पडिसंवेदेति; पत्तेयं जायति पुरिसो वा एगता पुव्विं णातिसंयोगे विप्पजहति, नातिसंयोगा वा एगता पुव्विं पुरिसं विप्पजहंति ॥ ६७४ - सूत्रकृतांग श्रु.२, अ.१, सू. ६७२,६७३,६७४ " से मेहावी पुव्वामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जां भवति ॥६७२ ॥ "तेसिं वा भयंताराणं मय णाययणं अण्णयरे दुक्खे रोगायंके भवति ॥६७३ ॥” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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