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________________ क्या कर्मफल-भोग में विनिमय या संविभाग है ? ३११ एक आचार्य ने ठीक ही कहा है-“यह सदैव सर्वमान्य निश्चित तथ्य है कि सभी प्राणी अपने-अपने कृतकर्मों के उदय से जीवन, मरण, दुःख या सुख पाते हैं। यह अज्ञानता है कि दूसरा व्यक्ति दूसरे को जिला सकता है, मार सकता है या सुखी-दुःखी कर सकता है।" एक के कर्म को दूसरा नहीं भोग सकता, दुःख को भी बाँट नहीं सकता . सूत्रकृतंग सूत्र के पौण्डरीक अध्ययन में इस तथ्य का विशेष रूप से विश्लेषण किया गया है-"(उक्त शास्त्रज्ञ) बुद्धिमान साधक को स्वयं पहले से ही सम्यक् प्रकार से जान लेना चाहिए कि इस लोक में मुझे किसी प्रकार का कोई दुःख या रोग-आतंक, (जो कि मेरे लिए अनिष्ट, अप्रिय, यावत् दुःखदायक है) पैदा होने पर मैं अपने ज्ञातिजनों से प्रार्थना करूँ कि-'हे भय का अन्त करने वाले ज्ञातिजनो! मेरे इस अनिष्ट, अप्रिय यावत् कष्टरूप या असुख रूप दुःख या रोगातंक को आप लोग बराबर बांट लें, ताकि मैं इस दुःख से दुःखित, चिन्तित, यावत् अतिसन्तप्त न होऊ। आप सब मुझे इस अनिष्ट यावत् उत्पीड़क दुःख या रोगातंक से मुक्त करा (छुटकारा दिला) दें।' इस पर वे ज्ञातिजन मेरे दुःख एवं रोगातंक को बाँट कर ले लें या मुझे उस दुःख या रोगातंक से मुक्त करा दें, ऐसा कदापि नहीं होता।" ... अथवा भय से मेरी रक्षा करने वाले उन मेरे ज्ञातिजनों को ही कोई दुःख या रोग उत्पन्न हो जाए, जो अनिष्ट यावत् असुखकर हो, तो मैं उन भयत्राता ज्ञातिजनों के अनिष्ट अप्रिय यावत् असुखरूप उस दुःख रोगातंक को बांट कर ले लं, ताकि वे मेरे ज्ञातिजन दुःखित न हों, यावत् वे अतिसंतप्त न हों, तथा मैं उन ज्ञातिजनों को उनके किसी अनिष्ट यावत् असुखरूप दुःख या रोगातंक से मुक्त कर दूं, ऐसा भी कदापि नहीं हो सकता। (क्योंकि) दूसरे के दुःख को दूसरा व्यक्ति बांट कर नहीं ले सकता। दूसरे के द्वारा कृतं कर्म का फल दूसरा नहीं भोग सकता। प्रत्येक प्राणी अकेला ही जन्मता है, आयुष्य .. क्षय होने पर अकेला ही मरता है। प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही (धन-धान्य, हिरण्य-सुवर्णादि । परिग्रह, शब्दादि विषयों तथा माता-पिता आदि के) संयोगों का त्याग करता है। प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही इन वस्तुओं का उपभोग या स्वीकार करता है। प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही झंझा (कलह) आदि कषायों का ग्रहण करता है, अकेला ही पदार्थों का संज्ञान (परिज्ञान) १. “सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय-कर्मोदयात् मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्। ____ अज्ञानमेतदिह यत्तु परं परस्य, कुर्यात् पुमान् मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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