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________________ ३१० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) निष्कर्ष यह है-वैदिक धर्म परम्परा में पुण्य-पाप दोनों कर्मों का फल-संविभाग माना गया है, जबकि बौद्ध धर्म परम्परा में कुशल कर्म के फल का संविभाग ही माना गया है; अकुशल (पाप) कर्म के फल का संविभाग नहीं। मिलिन्द प्रश्न में अकुशल कर्मफल को दो कारणों से संविभाग के अयोग्य माना है-(१) पाप कर्म के फल पाने में प्रेत की. अनुमति नहीं है, अतः उसका फल प्रेत को नहीं मिल सकता। (२) अकुशल कर्म परिमित होता है अतः उसका संविभाग नहीं हो सकता, जबकि कुशल कर्म प्रचुर होता है इस कारण उसका संविभाग सम्भव है।' । किन्तु गहराई से सोचें तो यह तर्क निराधार है। यदि अनुमति के अभाव में अकुशल कर्म का फल प्राप्त नहीं हो सकता तो फिर कुशल कर्म का फल कैसे प्राप्त हो जाता है ? इस कथन के पीछे क्या प्रमाण है कि कुशल अपरिमित है और अकुशल परिमित है ? परिमित का फलभोग क्यों नहीं हो सकता? वस्तुतः कर्मफल-संविभाग की मान्यता व्यावहारिक जगत् में प्रचलित है। वर्तमान . वैज्ञानिक युग में किसी भी नागरिक के शुभाशुभ कृत्यों से समग्र समाज, राष्ट्र एवं परिवार तथा भावी पीढ़ी भी प्रभावित होती है। एक व्यक्ति की गलत नीति का दुष्फल मारे राष्ट्र, समाज और परिवार को भी भोगना पड़ता है। व्यवहार-बुद्धि कर्मफलसंविभाग से अवश्य सन्तुष्ट होती है, किन्तु कर्मसिद्धान्त की तह में जाने पर उपादान कारण की दृष्टि से एक व्यक्ति के किये गए शुभाशुभ कर्मफल दूसरे को मिलें, यह असंगत लगता है। निमित्त कारण की अपेक्षा कर्मफल संविभाग-व्यवहार में स्वीकार्य है। निष्कर्ष यह है कि कर्मफल का संवेदन व्यक्ति का अपना-अपना है, उपादान भी अपना-अपना पृथक्-पृथक है। इस दृष्टि से जैनकर्मविज्ञान कर्मफल में संविभाग और विनिमय दोनों को ही अस्वीकार करता है। यदि कर्मफल का विनिमय या संविभाग हो सकता होता तो एक व्यक्ति का दुःख दूसरा भोग लेता, अथवा पिता अपना सुख पुत्र या पुत्री को दे देता; परन्तु ऐसा होना सम्भव नहीं है। प्रत्येक प्राणी अपने सुख-दुःख के लिए स्वयं जिम्मेवार है। १. (क) वही, पृ. ३१७ (ख) मिलिन्दप्रश्न ४/८/३०-३५ पृ. २८८ (ग) आत्ममीमांसा (डॉ. दलसुख मालवणिया) पृ. १३२-१३३ (घ) गीतारहस्य पृ. २६८ २. जैन-बौद्ध-गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से सारांश ग्रहण पृ. ३१७-३१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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