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________________ क्या कर्मफल- भोग में विनिमय या संविभाग है ? ३०९ वैदिक धर्म परम्परा के मूर्धन्य ग्रन्थ महाभारत में कर्मफल संविभाग की बात को स्वीकार किया गया है कि संतान के द्वारा करुणादि कृत्यों का प्रभाव पूर्वजों पर पड़ता है। इतना ही नहीं, पूर्वजों के शुभाशुभ कृत्यों का फल भी संतान को मिलता है। वहाँ युधिष्ठिर' से भीष्म कहते हैं- “राजन् ! चाहे किसी व्यक्ति को उसके कृत पाप कर्मों का फल उस समय मिलता हुआ न दिखाई दे, किन्तु वह (भविष्य में) उसे ही नहीं, पुत्रों तथा पौत्र-प्रपौत्रों तक को भोगना पड़ता है।" गीतारहस्य में इसी सन्दर्भ में महाभारत और मनुस्मृति का हवाला देते हुए कहा गया है - केवल हमें ही नहीं, हमारे नामरूपात्मक देह से उत्पन्न पुत्रों, प्रपौत्रों तक को कर्मफल भोगने पड़ते हैं। गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन ने वैदिक परम्परा की दृष्टि से शंका प्रस्तुत की है - कुल का नाश होने से कुलधर्म नष्ट हो जाएगा, कुलनारियाँ दूषित हो जाएँगी, उनसे वर्णसंकर सन्तान पैदा होगी। वर्णसंकर संतान होने से कुलधर्म से सम्बन्धित पितरों को पिण्डदान एवं जलांजलि देने की क्रिया लुप्त हो जाएगी, इससे पितरों का भी पतन होगा ।" इसका फलितार्थ है कि सन्तान आदि के द्वारा किये गए शुभाशुभ कृत्यों का प्रभाव पितरों पर पड़ता है। अतः वैदिक धर्म परम्परा में शुभाशुभ कर्मों के फल का संविभाग स्वीकार किया गया है। बौद्ध धर्म परम्परा ने शुभ कर्म फल के संविभाग की पुष्टि की है। बौद्ध धर्म-दर्शन में कहा गया है—“बोधिसत्त्व सदैव यही शुभकामना करते हैं कि हमारे कुशल कर्मों का `फल विश्व के समस्त जीवों को मिले।" इससे स्पष्ट है - बौद्धधर्म केवल शुभ कर्मों के संविभाग को मानता है। बौद्धदर्शन का सामान्य नियम तो यही है- जो व्यक्ति कर्म करता है, वही उसका फल (सन्तान प्रवाह की अपेक्षा से) भोगता है। बौद्धों के पालिनिकाय ग्रन्थ में पुण्य का पत्तिदान बताया गया है। बौद्धधर्म वैदिक परम्परानुसार प्रेतयोनि में विश्वास करता है। उसका मानना है कि प्रेत के निमित्त से जो दान-पुण्य किया जाता है, उसका फल प्रेत को मिलता है। उसका यह भी मन्तव्य है कि यदि कोई प्राणी मर कर परदत्तोपजीवी प्रेतयोनि में जन्म लेता है, तब तो उसके निमित्त यहाँ किया जाने वाले पुण्य कर्म का फल उसे मिलता है, लेकिन जो प्राणी मरकर मनुष्य, देव या तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होता है, तो पुण्यकर्मफल उसके कर्ता को ही मिलता है; मनुष्य, देव या तिर्यञ्च को नहीं । ३ १. (क) महाभारत शान्तिपर्व १२९ (ख) मनुस्मृति ४ / १७३ (ग) महाभारत आदिपर्व ८०/३ (घ) गीतारहस्य (लोकमान्य तिलक) से पृ. २६८ गीता १/४० से ४३तक ३. (क) बौद्ध धर्म दर्शन ( आचार्य नरेन्द्रदेव ) पृ. २७७ (ख) 'जैन-बौद्ध-गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) से सारांश ग्रहण, पृ. ३१६-३१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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