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३०८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-तू शोक न करने योग्य व्यक्तियों के लिए शोक करता है, और पण्डितों की भाषा में बोलता है, परन्तु पण्डितगण तो सप्राण और निष्प्राण दोनों के लिए शोक नहीं करते। ये सब लोग तो स्वयं अपनी मौत से मरने वाले हैं, तू तो सिर्फ निमित्त होगा।" ____ यहाँ प्रश्न यह उठता है, यदि मनुष्य दूसरों का अहित या हित करने में केवल निमित्त बनता है तो वह पाप-पुण्य का भागी क्यों बनता है ? जैनकर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने इसका समाधान इस प्रकार किया है कि अगर व्यक्ति राग-द्वेषरहित होकर परहित करने में निमित्त बनता है, तो वहाँ पुण्यबन्ध नहीं होगा, परन्तु चूँकि व्यक्ति का राग-द्वेष और कषाय छूटा नहीं है, और कुछ नहीं तो प्रशस्त राग भी सूक्ष्मरूप से है वहाँ तक वह पुण्य कर्म का भाजन बन जाएगा। अतः पाप-पुण्य की क्रिया दूसरे के अहित-हित पर आधारित न होकर मनुष्य के अशुभ-शुभ परिणामों पर निर्भर है। मनुष्य दूसरों के हित-अहित करने पर निम्मेदार इसलिए है कि कर्म और कर्मसंकल्प उसने किया है। अतः निमित्त की अपेक्षा कर्म और कर्मसंकल्प के कारण सुख-दुःख या हिताहित करने में व्यक्ति को पुण्य-पाप का बन्ध होता है। अतः सुख-दुःखरूप फलभोग में उपादान तो व्यक्ति स्वयं ही होता है। किन्तु निमित्त दूसरे हो सकते हैं। उपादान और संवेदन व्यक्ति का अपना-अपना पृथक्-पृथक् होता है, लेकिन निमित्त अन्य व्यक्ति, पुद्गल, गति, क्षेत्र, आदि हो सकते हैं। दूसरों के प्रति व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है, उसी के अनुसार उसको पुण्य या पाप का बन्ध होता है, और उसका फल भी भोगना पड़ता है। इसी दृष्टि से जैनकर्म विज्ञान ने कर्म-फल संविभाग या विनिमय को अस्वीकार किया है।
क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ आत्मा का सामर्थ्य ध्यानाग्नि से इतना प्रखर हो जाता है कि कर्मरूपी काष्ठ उसमें जलकर भस्म हो जाते हैं, इसीलिए प्रशमरति में आचार्य उमास्वाति ने कहा-"क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ आत्मा इतना समर्थ हो जाता है कि यदि दूसरे जीवों के कर्मों का उसमें संक्रमण हो सकता हो तो वह अकेला ही समस्त जीवों के कर्मों को क्षय करने में समर्थ है।''३ किन्तु कर्म का नियम ही ऐसा है कि एक जीव के कर्म दूसरे में संक्रमित नहीं हो सकते। जो कर्म बाँधता है, वही उसका फल भोगता है। यदि ऐसा न हो तो कर्म सिद्धान्त में गड़बड़ हो जाएगी, द्रव्य की स्वतंत्रता ही लुप्त हो जाएगी।"
-गीता.२/११
-वही.
१. अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतार॑श्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥
..............निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। २. कर्मवाद से भावांश ग्रहण पृ. १९४ ३. क्षपक श्रेणिमुपरिगतः स समर्थः सर्वकर्मिणां कर्म।
क्षपयितुमेको यदि कर्मसंक्रमः स्यात् परकृतस्य॥
-प्रशमरति
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