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________________ क्या कर्मफल- भोग में विनिमय या संविभाग है ? ३०७ पन, आदि सब दुःख के निमित्त हैं। जो व्यक्ति मन को शान्त, स्वस्थ एवं समत्व में स्थित कर लेता है, अपनी प्रज्ञा को स्थिर कर लेता है, वह तो दुःखों के अन्धड़ आने पर भी दुःखानुभव नहीं करता। वह यही मानता है कि सुख और दुःख का वेदन स्वकृत है, पर-कृत नहीं। एक आचार्य ने तो स्ष्ट कह दिया है- सुख और दुःख का दाता कोई नहीं है (स्वयं ही है); दूसरा व्यक्ति या ईश्वर सुख या दुःख देता है, यह कुबुद्धि है । दुःख और सुख अपने ही कृतकर्म के अधीन हैं । २ अनाथी मुनि अपनी अनाथता का परिचय देते हुए मगध सम्राट् श्रेणिक से कहते हैं-"मेरी आँखों में इतनी भयंकर वेदना थी, मानो क्रुद्धशत्रु तीक्ष्ण शस्त्र भौंक रहा है। विद्या, मंत्रविद्या तथा चिकित्सा में पारंगत महान् आचार्यों ने मेरा सर्वांगीण दृष्टि से उपचार किया, परन्तु वे मेरे दुःख को मिटाने में असमर्थ रहे। मेरे पिताजी ने मेरी चिकित्सा के लिए सर्वस्व धन लुटा दिया, फिर भी वे मुझे दुःख से मुक्त न कर सके। पुत्र के शोक से दुःखार्त मेरी माता भी दुःख से छुटकारा न दिला सकी। बड़े सहोदर भ्राताओं काफी दौड़-धूप की, फिर भी वे इस दुःख से मेरा पिण्ड न छुड़ा सके। मेरी छोटी-बड़ी सगी बहनों ने भी बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वे भी मुझे दुःखमुक्त करने में सफल न हो • सकीं। मेरी अनुरक्ता एवं पतिव्रता पत्नी मेरी इस पीड़ा के कारण अहर्निश आँसू बहाती थी, उसने मेरी इस पीड़ा की चिन्ता से खाना-पीना, नहाना-धोना, तथा शृंगार करना भी छोड़ दिया। वह मेरे पास प्रतिक्षण परिचर्या में जुटी रहती थी, फिर भी वह मुझे इस दुःख से छुटकारा नहीं दिला सकी। यही मेरी अनाथता - अशरणता है।" वास्तव में, कोई भी दूसरा कितना ही प्रयत्न करले, जब तक असातावेदनीय कर्म का उदय है, तब तक दुःख मिटना दुष्कर है। सुखद या दुःखद कर्म फलभोग में सहभागी या संविभागी दूसरा कोई नहीं बन सकता । अनाथी मुनि के अक्षिवेदनाजन्य दुःख को . मिटाने के लिए, उनके दुःख में सहभागी बनने के लिए समग्र परिवार ने एड़ी से चोटी तक प्रयत्न कर लिया, किन्तु वह दुःख उनसे नहीं मिटा, वह तभी मिटा, जब स्वयं अनाथी ने अपने उपादान को संभाला, अशुभ कर्मों के क्षय-क्षयोपशम के लिए अथवा शुभ में परिवर्तन करने के लिए स्वयं ने संकल्प किया। अतः कर्मफल का संविभाग या विनिमय कथमपि सम्भव नहीं । निमित्त भी तभी सफल हो सकता है, जब व्यक्ति का उपादान ठीक हो । १. "दुःख दौर्मनस्यांगमेजयत्व- श्वास-प्रश्वासाविक्षेपरुसहभुवः" -योगदर्शन पाद १, सूत्र ३१ २. सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । अहं करोमीति वृथाभिमानः, स्वकर्म सूत्र - ग्रथितो हि लोकः ॥ ३. (क) देखें - उत्तराध्ययन सूत्र अ. २०गा. २० से ३० तक (ख) वही, अ. २० गा. ३२-३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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