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३०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
दिया, अमुक सेठ ने उसे अर्थ सहयोग देकर सुखी कर दिया अथवा अमुक व्यक्ति ने उसकी शिकायत करके उसे नौकरी से मुक्त कराकर दुःखी कर दिया। परन्तु ये सब निमित्त हैं। निमित्त के हाथ में सुख-दुःख देने की कोई शक्ति नहीं है। निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति के उपादान कारण की दृष्टि से सुखद दुःखद संवेदन (अनुभव) स्वकृत है, किन्तु निमित्त कारण की दृष्टि से परकृत है। '
आचार्य कुन्दकुन्द ने उपादान कारण (निश्चयनय) की दृष्टि से कहा कि जो यह मानता है कि मैं जीवों को सुखी या दुःखी करता हूँ, वह मूढ़ या अज्ञानी है। ज्ञानी की दृष्टि इससे विपरीत है। मैं जीवों को सुखी या दुःखी करता हूँ, यह तुम्हारी मूढ़ मति है। इससे शुभाशुभ कर्म का बन्ध होता है । "२
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दूसरा व्यक्ति दुःख के साधन जुटाता है, अथवा परीषह के रूप में कोई भी दुःख आ पड़ता है, उस समय यदि व्यक्ति अपने उपादान को संभाल ले, अथवा मन में विक्षोभ, चंचलता, तनाव आदि न लाए, समभाव में स्थिर रहे तो दुःख के निमित्त मिलने पर भी दुःख का वेदन नहीं होगा। जिसका मन शान्त हो जाता है, समभाव में स्थिर हो जाता है, वह दुःखद घटना जान लेने पर भी दुःख का वेदन (अनुभव) नहीं करता ।
बहुत-से लोग जो इस तथ्य को नहीं समझते हैं, अकारण ही दुःखानुभव करते रहते हैं। कई लोग तो जरा-जरा-सी बात पर दुःख -संवेदन करने लगने हैं। निमित्तों को कोसने लगते हैं-अमुक ने मुझे दुःखी कर दिया । अमुक व्यक्ति ऐसा नहीं करता तो मैं दुःखी नहीं होता । अमुक व्यक्ति : मुझे प्रणाम नहीं किया, अमुक ने मुझे पूछा तक नहीं, अमुक व्यक्ति ने मुझे अपशब्द कहे, गाली दी इत्यादि सैकड़ों बातें निमित्तों को लेकर दुःख - संवेदन करने की होती हैं।
योगदर्शन में मन के विक्षेप के साथी बताए गए हैं - ( अकारण) दुःख, दौर्मनस्य, अंगकम्पन, श्वास-प्रश्वास में वृद्धि इत्यादि । मन में विक्षेप, चंचलता, वैमनस्य, अनमना
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(क) प्रेक्षाध्यान मई १९९१ के अंक में प्रकाशित " अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में " लेख से भावांश ग्रहण पृ. ७
(ख) जैन-बौद्ध-गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ0 सागरमल जैन) से
भावांश ग्रहण पृ. ३१८
“जो अप्पणा दु मण्णदि, दुक्खिद सुहिदं करेमि सत्तेति ।
मूढो अण्णाणी, पाणी एत्तो दु विवरीदो ||
एसा दुजा मदीदे दुक्खिद सुहिदे करेमि सत्ते ति । एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ॥
- समयसार गाथा २५३,२५९.
प्रेक्षाध्यान मई १९९१ के अंक में प्रकाशित 'अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में' लेख से
भावांश ग्रहण पृ. ७-८
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