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क्या कर्मफल- भोग में विनिमय या संविभाग है ? ३०५
उस अर्थमात्रा में आसक्त होता है। उपभोग के लिए उसकी रक्षा करता है। उपभोग के बाद बची हुई विपुल सम्पत्ति के कारण वह महान् वैभवशाली बन जाता है। किन्तु फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है कि दायाद हिस्सा बंटा लेते हैं, चोर उसे चुरा लेते हैं, राजा (शासक) उसे छीन लेते हैं। या वह अन्य प्रकार (दुर्व्यसनों आदि में या मुकद्दमे बाजी, आतंकप्रयोग आदि ) से नष्ट-विनष्ट हो जाती है, अथवा गृहदाह आदि से जलकर भस्म हो जाती है। "
“इस प्रकार अज्ञानी मानव दूसरों के लिए क्रूरकर्म करता हुआ (दुःखद कर्मफल पाता है, तब) दुःखोदय (दुःखद कर्मोदय) होने पर वह मूढ़ बनकर विपर्यास भाव को प्राप्त हो जाता है।”””
आशय यह है-कर्मफल प्राप्त होने पर भी विभिन्न कारणों से वह फलभोग नहीं प्राप्त कर पाता। प्रत्युत दुःखरूप वेदन ही उसके पल्ले पड़ता है।
प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करता है, परकृत का नहीं
"
भगवती सूत्र में भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है - प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का भोग करते हैं या परकृत सुख-दुःख का ? इस पर भ. महावीर ने समाधान किया- "प्राणी अपने ही द्वारा कृत सुख-दुःख का भोग करते हैं। " वस्तुतः सुख-दुःख का उपादान तो व्यक्ति ही होता है। सुखी या दुःखी होना व्यक्ति के अपने हाथ में हैं। " "दुःख किसने किया ?" यह पूछने पर भ. महावीर ने यही कहा-'दुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं।'' दूसरा व्यक्ति सुख या दुःख देने में मात्र निमित्त बन सकता है।
जैनकर्मविज्ञान की मान्यता है कि विविध सुखद या दुःखद फलभोगों (अनुभवों का संवेदन) का मूल (उपादान) कारण तो व्यक्ति के अपने ही पूर्वकर्म हैं।
इस सिद्धान्त को समझने के लिए हमें उपादान और निमित्त कारण को समझना आवश्यक है। कहा जाता है-अमुक डॉक्टर ने अमुक रोगी को रोगमुक्त करके सुखी कर
११. “तिविहेण जावि से तत्थ मत्ता भवइ, अप्पा वा बहुगा वा । से तत्थ गाढए चिट्ठति भोयणाए । ततो से एगया विप्परिसिद्धं सभूयं महोवगरणं भवति । तंपि से एगया दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा से अवहरंति, रायाणो वा से विलुपति, णस्सइ वा से, विणस्सइ वा से, अंगारदाहेण वा डज्झइ ।
इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेइ ॥” - आचारांग श्रु. १, अ. २, उ. ४, सूत्र ८२
(क) भगवती सूत्र १ / २ / ६४
- भगवती सूत्र
(ख) दुक्खे केण कडे ? अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे ।
(ग) जैन-बौद्ध-गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (डॉ० सागरमल जैन) से
भावांश ग्रहण पृ. ३१६
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