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________________ ३०४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) इसका समाधान यह है कि परिवार के जिन लोगों ने कृषिकर्म में हाथ बंटाया है, उन्हें तो उसका फलभोग मिलता ही है, किन्तु जिन बच्चों या किशोर-किशोरियों ने कृषिकर्म नहीं किया है, उनका उनके पूर्वजन्मकृत कर्मों के कारण उक्त परिवार से सम्बन्ध हुआ, इस कारण पूर्वोपार्जित कर्म के फलस्वरूप उन्हें भी उसका फल मिलता है। कर्मफल मिलने एवं कर्मफल भोगने में अन्तर है किन्तु एक रहस्य इसमें अवश्य है- कर्मफल मिलना एक बात है और कर्मफल का भोगना-संवेदन करना दूसरी बात है । कर्मफल एक समान मिलने पर भी उस फल का भोग (वेदन) पृथक्-पृथक् रूप से होता है। परिवार के एक युवक को कृषिकर्म का फल तो मिला, किन्तु वह दुःसाध्य बीमारी का शिकार हो जाने से अथवा किसी कारणवश कारागार में बंद किये जाने से उस फल का उपभोग नहीं कर सका। अथवा अकस्मात् हार्ट फेल या एक्सीडेंट हो जाने से वह यथेष्ट फलभोग नहीं कर सका। इसी दृष्टि से आचारांग सूत्र में कहा गया है- “एक समय ऐसा आता है, जब अर्थसंग्रही मनुष्य के शरीर में (भोगफल में) अनेक प्रकार के रोगों के उत्पात (उपद्रव) पैदा हो जाते हैं। (उस समय) वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्वजन एकदा ( रोगग्रस्त होने पर ) उसका तिरस्कार एवं निन्दा करने लगते हैं। ( वैमनस्य हो जाने से) बाद में वह भी उनका तिरस्कार एवं निन्दा करने लगता है।” आशय यह है कि अर्थसंग्रही मानव को अर्थसंग्रह का फल तो मिला, लेकिन उस फल का यथेष्ट उपभोग वह नहीं कर सका । इसलिए वहाँ कहा गया है- 'दुःख और सुख (रूप फलभोग) प्रत्येक आत्मा का अपना-अपना है, यह समझो।" उसके दुःख में न तो उसके ज्ञाति(स्व)जन हिस्सा बँटाते हैं, न मित्रगण, न पुत्र और न ही बन्धु बान्धव । वह अपने दुःख को स्वयं ही भोगता (अनुभव करता) है। सच है, कर्म कर्ता का ही अनुगमन करते हैं।”” एक दूसरे पहलू से भी फलभोग (वेदन) में प्रत्येक व्यक्ति की भिन्नता बताते हुए कहा गया है-“विषयभोगों में आसक्त मनुष्यों के पास कदाचित् अपने, दूसरों के या दोनों के सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या प्रचुरमात्रा में अर्थ (धन) सम्पदा हो जाती है। वह फिर १. (क) “तओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जति । जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णंएगया णियमा पुव्विं परिव्वयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवएज्जा ।” - आचारांग श्रु.१ अ. २, उ. ४ सू. ८१ (ख) "जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।” (ग) न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाई कम्मं ॥ - उत्तराध्ययन १३ / २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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