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क्या कर्मफल-भोग में विनिमय या संविभाग है ? ३०३ कोई भी प्राणी न तो किसी दूसरे के बदले कर्म कर सकता है और न ही दूसरे के द्वारा किये हुए कर्म का फल दूसरा भोग सकता है। स्वकृत कर्म का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। एक के किये हुए कर्म का फल भी दूसरा नहीं भोग सकता, और न ही कर्म की अदला-बदली हो सकती है। इतना अवश्य है कि कर्मफल भुगवाने में दूसरा व्यक्ति निमित्त या प्रेरक बन सकता है। यदि कर्म और उसके फल का विनिमय हो सकता, तब तो रोगी, दुःखी या पीड़ित आदि के रोग, दुःख या पीड़ा को उसके स्वजन अवश्य बांट लेते और उसे सुखी कर देते। कर्म के फलभोग में कोई भी हिस्सा नहीं करता
उत्तराध्ययन सूत्र में तो स्पष्ट कहा है कि-"संसारी प्राणी (अपने और) दूसरों (बन्धु-बान्धवों) के लिए साधारण (सबको समान फल मिलने की इच्छा से किया जाने वाला) कर्म करता है परन्तु उस कर्म के वेदन (फलभोग) के समय वे बान्धव बन्धुता नहीं दिखाते, अर्थात-उस कर्मफल को भोगने में हिस्सेदार नहीं होते।" यदि एक का कर्म या कर्मफल दूसरा ले सकता, तब तो स्वाध्याय, तप या अन्य रत्नत्रय साधना आदि की जरूरत कोई भी न समझता, दूसरों से स्वाध्यायदि के लाभ का फल ले लेता। ___ अतः निष्कर्ष यह है कि “जिस व्यक्ति ने जैसा, जो कुछ कर्म किया उसका फल उसे ही मिलता है, दूसरे को नहीं। आगम में कहा है-कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है। जो कर्ता है, वही उसका फल भोगता है। कपड़ा बुनने वाला, घड़ा बनाने वाला स्वयं ही उसका फल प्राप्त करता है। इसी प्रकार जो अच्छा-बुरा जैसा भी कर्म करता है वही उसका फल भोगता है। एक व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मफल में दूसरा हिस्सेदार नहीं हो सकता - जैनकर्मविज्ञान का स्पष्ट मन्तव्य है कि शुभ या अशुभ कर्म के फलभोग में एक के बदले दूसरा व्यक्ति जिम्मेदार नहीं बन सकता। व्यक्ति जैसा भी शुभ या अशुभ कर्म करता है, वह अपने ही संकल्प या विचार के अनुसार करता है, इसलिए वही उसके फल की प्राप्ति का अधिकारी है। . प्रश्न होता है कि जैसे परिवार के अधिकांश लोग मिलकर खेती करते हैं, पर जब फसल आती है, तब उसका फल सारे परिवार को मिलता है, जो बच्चा या विद्यार्थी किशोर अभी कृषि कर्म में हिस्सा नहीं बँटाता। उसे भी उस कृषिकर्म के फलस्वरूप अनाज तथा उससे बनी हुई चीजें मिलती हैं। इसलिए दूसरे के द्वारा किये गये कर्म का फल कर्म नहीं करने वालों को भी मिलता है।
१. “संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म।
कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बांधवा बंधवयं उति ।।''
-उत्तराध्ययन ४/४
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