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उपादान पर सारा बोझ न डालो, निमित्त का विचार भी करो
उपादान की दृष्टि से विचार करने के साथ ही व्यक्ति अपने आपको उस दोष या अपराध से बरी न समझ ले, और ऐसा न कहना चाहिए कि मैं क्या करूँ; उसका (जिसको हानि पहुँचाई, हत्या की अथवा मारा-पीटा उसका ) उपादान ही ऐसा था । मैं तो केवल निमित्त बना हूँ। इस प्रकार निमित्त की ओट में स्वयं को छिपा लेना उचित नहीं है। उपादान पर सारा बोझ डालकर स्वयं छिप जाने से उस व्यक्ति को फिर बुराई करते रहने या उसी अपराध को बार-बार दोहराने में कोई संकोच नहीं होता। इसलिए व्यक्ति हो या समूह स्वयं को अपराध से बरी समझकर उपादान के नाम पर दूसरों के सिर पर दोष मढ़ देना कथमपि उचित नहीं है।
कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २९९
कर्मविज्ञान अपने प्रति विचार करते समय उपादान को प्राथमिकता देने तथा दूसरों के प्रति व्यवहार करते समय निमित्त को प्राथमिकता देने की बात कहता है। अपने पर संकट, विपत्ति या दुःख आ पड़ने पर कर्म सिद्धान्तविज्ञ व्यक्ति अपने उपादान का विचार करे, निमित्त को न कोसे, किन्तु दूसरों के प्रति अयुक्त, अनुचित या अन्याययुक्त व्यवहार के समय व्यक्ति उसके उपादान का विचार न करके स्वयं के निमित्त होने- दूसरों को क्षति पहुँचाने में निमित्त बनने का विचार करे और अपना अपराध या दोष स्वीकार करे। यही शुभकर्म या शुद्धकर्म (अकर्म) का सामाजिक रूप होगा।
कर्मोदय की दो अवस्थाएँ : स्वयं उदीरित, परेण उदीरित
कर्मविज्ञान में व्यक्तिगत या समूहगत कर्मबन्ध के पश्चात् उसका फल भुगवाने से पहले वह उदय में आता है। कर्मोदय की दो अवस्थाएँ मानी गई हैं - एक अवस्था वह हैजिसमें कर्म स्वयं उदय में आता है। दूसरी अवस्था वह है, जिसमें कर्म को उदय में आने से पहले ही स्वयं उदीरणा करके उदय में विपाकावस्था में लाया जाता है, और शीघ्र ही फल भोग करके उसे निर्जीर्ण (क्षीण) कर दिया जाता है। उदीरणा भी दो प्रकार से होती है- एक स्वतः उदीरणा की जाती है; दूसरी, दूसरे निमित्त के द्वारा उदीरणा की जाती है। आशय यह है किसी शुभ या अशुभ पूर्वकृत वैयक्तिक या सामूहिक कर्मबन्ध का फल • विपाकावस्था को प्राप्त होने से पहले ही या तो स्वतः उदीर्ण करके फलभोग लेना, अथवा
दूसरे किसी निमित्त के द्वारा कर्मफल को उदीरित कर देना।'
दो दृष्टान्तों द्वाराः वैयक्तिक की तरह सामूहिक कर्म-विपाक
वैयक्तिक एवं सामूहिक कर्म की परेण उदीरणा को हम दो दृष्टान्तों द्वारा समझ
लें
१. वही, भावांश ग्रहण, पृ. १८७
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