SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २९१ उपादान की दृष्टि से नितान्त ठीक बताते हुए कहा गया है-'आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं ही उसका फल भोगती है।' निमित्त कारण व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक होता है किन्तु निमित्त कारण वैयक्तिक नहीं होता, वह सामूहिक या सामाजिक होता है। उदाहरण के तौर पर एक घर के मुखिया ने जुआ खेला, उसमें सारी पूँजी गंवा दी। उसके परिवार में छोटे-बड़े कुल मिलाकर ३0 आदमी हैं। सबको उस धनहानि का परिणाम भोगना पड़ा। धन के अभाव का आक्रमण सब पर हुआ। इस प्रकार एक व्यक्ति के किये हुए अनिष्ट कर्म के कारण आया हुआ दुःखरूप परिणाम सामूहिक हो गया।' परिणाम सामूहिक, किन्तु संवेदन व्यक्तिगत परन्तु सबका संवेदन सामूहिक नहीं होता। घर में जो तीस आदमी हैं, उन सबका संवेदन पृथक्-पृथक् होगा। सबमें कुछ न कुछ भिन्नता एवं फल भोगने में तरतमता अवश्य रहेगी। घटना एक होने पर भी सबका संवेदन भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा। किसी का संवेदन तीव्र होगा, किसी का मन्द और किसी का मध्यम। एक का संवेदन दूसरे से प्रायः नहीं मिलेगा। एक भाई सोचेगा-“भाईजी ने बहुत ही बुरा किया। जुआ न खेलते तो इतना धन बर्बाद न होता।" उससे छोटा भाई सोचेगा-"हमें कितनी सुख-सुविधाएँ मिलती थीं, लेकिन आज बड़े भैया के कारण हमें गरीब और अभावपीड़ित होना पड़ा।'' उसका बड़ा पुत्र सोचता है-"हाय! पिताजी के कारण हम लुट गए! अब हमारा कारोबार कैसे चलेगा? पूंजी तो सारी जुए में स्वाहा कर दी पिताजी ने !" मझला पुत्र कहता है"पिताजी ने ही धन कमाया था, उन्हीं के हाथों वह चला गया। इसमें अब चारा ही क्या है? व्यापार है यह तो, इसमें उतार-चढ़ाव आता ही रहता है।" उससे छोटा पुत्र कहता है-"भाई! होनहार को कोई टाल नहीं सकता। भाग्य में लिखा होगा तो फिर धन आ जाएगा। चिन्ता करना बेकार है।" सबसे छोटा पुत्र कहता है-“लक्ष्मी का स्वभाव ही चंचल है। वह आती-जाती रहती है। क्या हुआ धन चला गया तो? हमारे हाथों में शक्ति है, फिर पुरुषार्थ करके कमायेंगे और पुनः स्वावलम्बी हो जाएँगें।" पुत्रों की माता सोचती है-“लड़कों के पिताजी ने बड़ी मुश्किल से इतनी पूंजी इकट्ठी की थी, किन्तु कौन - जानता था, इस प्रकार इनके जुए के खेल में सारी पूँजी एकदम चली जाएगी? हाय! बड़ी मुसीबत आ गई!" १. (क) स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते। (ख) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य॥ (ग) कर्मवाद से किंचिद् भाव ग्रहण पृ. १८४ -उत्तराध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy