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________________ २९० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) गया था। बंगलादेश बना, तब भी वहाँ के निवासियों को अभावपीड़ित स्थिति में रहना पड़ा था। ___कभी-कभी एक व्यक्ति कोई ऐसा कार्य करता है, जिससे सारा संघ या संस्थान लाभान्वित होता है। कौरव-पाण्डवों के वर्ग ने मिलकर जुआ खेला, उसके फलस्वरूप हुए महाभारत युद्ध की पीड़ा अनेकों को भोगनी पड़ी।' किसी सम्राट में कामुकता थी, उसके कारण पूरा देश परतंत्र हो गया। पृथ्वीराज चौहान ने कुछ गलत काम किये, उसका परिणाम पूरे भारतवर्ष को भोगना पड़ा। चन्द्रगुप्त मौर्य, महाराणा प्रताप आदि ने अपने-अपने देश, राष्ट्र अथवा प्रान्त की स्वतन्त्रता के लिए कुछ कष्ट सहन किया, उसका परिणाम पूरे राष्ट्र, देश या प्रान्त को मिला। कर्म सामूहिक या सामाजिक न होता तो एकमात्र मुख्य कर्मकर्ता ही फल भोगता .. ये और इस प्रकार की सारी घटनाएँ हमें यह सोचने के लिए बाध्य करती हैं कि कर्म सामाजिक भी होता है। यदि वह सामाजिक नहीं होता तो मुख्यतया कर्मकर्ता को ही उसका फल भोगना पड़ता, उससे सम्बन्धित अन्य लोगों को उसके कर्म का फल नहीं मिलता या नहीं भोगना पड़ता। परन्तु उपर्युक्त घटनाओं से सिद्ध है कि, कभी-कभी एक साथ अनेक व्यक्तियों या परिवार, समाज, राष्ट्र आदि समूह को मुख्यतः वैसा शुभ-अशुभ कर्म न करने पर भी उसका फल सामूहिक रूप में भोगना पड़ता है, या मिलता है। इसलिए कर्म और कर्मफल व्यक्तिगत की तरह सामूहिक भी होता है। अर्थात् अकेले एक व्यक्ति द्वारा मुख्यरूप से वांछनीय या अवांछनीय कर्म किया जाता है, और उसका परिणाम सम्बन्धित वर्ग या समूह को भोगना पड़ता है। . कर्म और कर्मफल वैयक्तिक भी है, सामूहिक या सामाजिक भी है ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि अगर कर्म और कर्मफल सामूहिक या सामाजिक होते हैं तो 'क्या जो कर्म करता है, वही उसका फल भोगता है यह वैयक्तिक कर्म एवं कर्मफल का सिद्धान्त' यथार्थ नहीं है? उपादान की दृष्टि से आत्मा स्वयं ही कर्म करता है, स्वयं ही फल भोगता है इसके उत्तर में हमें जैन कर्मविज्ञान की दृष्टि से गहराई में उतरना होगा। जैनदर्शन में दो प्रकार के कारण बताए हैं-उपादान कारण और निमित्त कारण। उपादान की दृष्टि से कर्म बिल्कुल व्यक्तिगत होता है। किसी भी कर्म का उपादान तो व्यक्ति स्वयं होता है। वह स्वयं ही कर्म करता है, और फल भी स्वयं भोगता है। इसीलिए यह सिद्धान्त १. कर्मवाद से किञ्चिद् भावांश ग्रहण, पृ. १८२-१८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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