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________________ २९२ . कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) इस प्रकार घटना एक होने पर भी उसकी प्रतिक्रिया भिन्न भिन्न प्रकार की हुई । सबका संवेदन भिन्न-भिन्न प्रकार का हुआ । इसीलिए हम देखते हैं कि कर्म एक का, परिणाम सामूहिक, किन्तु संवेदन व्यक्तिगत होता है। उपादान वैयक्तिक : निमित्त सामूहिक इसी प्रकार उपादान की दृष्टि से व्यक्ति स्वयं कर्म करता है, स्वयं ही उसे भोगता है, किन्तु निमित्त की दृष्टि से उससे सम्बन्धित सारा समूह उसका परिणाम भोगता है। मान लीजिए, किसी कारणवश दो सौ आदमी भीषण ग्रीष्म ऋतु में कहीं जा रहे हैं। वे सब अपनी व्यक्तिगत इच्छा से ही कड़ी धूप में यह गमन क्रिया कर रहे हैं। अतः गमन क्रिया का कर्म सबका व्यक्तिगत होने से उपादान व्यक्तिगत है, किन्तु उन सबको तेज धूप की पीड़ा हो रही है। सबको कष्ट का अनुभव हो रहा है, इस कारण कहना होगा-उपादान वैयक्तिक होते हुए भी निमित्त सामूहिक हुआ।' आचरण व्यक्तिनिष्ठ : व्यवहार समाजनिष्ठ: क्रिया वैयक्तिक, प्रतिक्रिया सामूहिक इसी प्रकार हम देखते हैं कि आचरण- - किसी भी कर्म की क्रिया- व्यक्तिगत होती है, किन्तु व्यक्ति का दूसरे से सम्बन्ध अवश्य होने से व्यवहार सामूहिक होता है। अतः कहा जाता है - आचरण व्यक्तिनिष्ठ होता है और व्यवहार होता है - समाजनिष्ठ । सामाजिक जीवन पूरा का पूरा व्यवहार से सम्बद्ध होता है। इसे दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है- 'क्रिया एक, प्रतिक्रिया अनेक ।' क्रिया से जैसे कर्म होता है, वैसे प्रतिक्रिया से भी कर्म और कर्मफल का संवेदन होता है। उदाहरणार्थ- एक महिला वैराग्यरस से ओतप्रोत गीत गाती है। जहाँ यह संगीत हो रहा है, वहाँ सौ से अधिक श्रोता उपस्थित हैं । उनमें से किसी को वह संगीत गायनकला की दृष्टि से बहुत रुचिकर लगता है, किसी को माधुर्य की दृष्टि से वह गायन दिलचस्प लगता है। कोई गीत गाने वाली महिला के हावभाव पर कोई उसके अभिनय पर और कोई गाये जाने वाले गीत के ताल और लय पर मुग्ध होता है। कोई व्यक्ति वैराग्यरस में सराबोर होकर विरक्ति के भावों में बहने लगता है तो कोई उस वैराग्यपूर्ण गीत से ऊब जाता है। कोई उस गीत को अत्यन्त सरस बतला कर गायिका को इनाम देता है, कोई धन्यवाद देता है, तो कोई उसके गीत को नीरस बतलाकर उसकी निन्दा करने लगता है। इस प्रकार महिला के द्वारा की गई गायन क्रिया एक होते हुए, उसकी प्रतिक्रिया 9. कर्मवाद से यत्किञ्चिद् भावांश ग्रहण पृ. १८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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