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________________ २८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) सामूहिक कर्मफल की संगति इस प्रकार होती है परन्तु कर्मफल की असंगति के लिए यह समाधान संतोषजनक नहीं है। कर्म सिद्धान्त का समाधान इस प्रकार का होना चाहिए-“यद्यपि 'क' के पत्नी-बच्चों का 'क' के वर्तमान कुकृत्य के लिए कोई दोष नहीं मालूम होता; परन्तु ऐसा भी सम्भव है, 'क' के द्वारा जिसकी हत्या की गई है, उस व्यक्ति से 'क' का सारा परिवार परेशान हो, भयाक्रान्त हो, या 'क' के परिवार को उसने दुःखद स्थिति में डाल दिया हो, या उस पर अन्याय अत्याचार किया हो, फलतः 'क' के अतिरिक्त उसके स्त्री-पुत्र भी मन और वचन से उक्त व्यक्ति को कोसते हों, उससे बदला लेने की प्रेरणा करते हों, अथवा मन ही मन या वचन से 'क' के द्वारा की गई हत्या का समर्थन-अनुमोदन करते हों।" परिवार के तन-मन-वचन में ऐसा कोई साधचार न हो, निहत व्यक्ति का भी 'क' के परिवार के प्रति कोई दुर्भाव या हानिपूर्ण व्यहार न हो, ऐसी स्थिति में उनको अपने परिवार के अग्रगण्य 'क' से बिछुड़ने और विपन्न अवस्था में पड़े रहने का जो दण्ड मिला; उसके पीछे पूर्वजन्म में इस या उस व्यक्ति के उस प्रकार के ऐसे कुकृत्य में 'क' का परिवार भी हिस्सेदार बना हो। जैसे-आजकल भी जहाँ किसी की हत्या की जाती है, वहाँ मुख्य हत्यारा एक होता है, दूसरे कई उसे सलाह देने वाले या प्रेरणा देने वाले, उकसाने वाले, शस्त्रास्त्र जुटाने वाले, साथी बनने वाले तथा उस कुकृत्य को छिपाने के लिए फरार होने या स्वयं को वकील के जरिये कानूनी दावपेंच से निर्दोष सिद्ध करने वाले अथवा झूठी साक्षी देने वाले या उसके कुकृत्य का समर्थन करने वाले होते हैं, वैसे ही 'क' के पत्नी-पुत्र पूर्वजन्म में घटित कुकृत्य में हिस्सेदार रहे हों। इस प्रकार सामूहिक कर्मफल की संगति भलीभांति हो जाती है। एक शासक के कुकृत्य का फल : सारी प्रजा को भोगना पड़ता है महाभारत में भी इस विचार के बीज मिलते हैं-एक शासक के अच्छे-बुरे कर्म का फल उसके राज्य की सारी प्रजा को भोगना पड़ता है। "राजा अगर धर्मिष्ठ होता है, तो प्रजा भी धर्मिष्ठ-धर्मपरायण होती है, राजा अगर पापी, अन्यायी, अत्याचारी होता है, उसकी प्रजा भी वैसी ही पापिष्ठ, अन्यायी, अत्याचारी बन जाती है। प्राचीन काल में प्रजा राजा का अनुसरण करती थी।" महाभारत में इस तथ्य को बहुत ही सशक्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। राजा अगर अपने कर्तव्य कर्म से या धर्म से च्युत हो जाता तो जनसमूह उसके राज्य की अव्यवस्था और अन्याय-अत्याचार से पीड़ित, दुःखित और व्यथित हो जाता था। कभी-कभी प्राकृतिक प्रकोप भी उसमें निमित्त बन जाता था।' १. (क) राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठा पापे पापा समे समा। राजानमनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजा॥ (ख) देखें-महाभारत, शान्तिपर्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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