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________________ कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २८७ वर्तमान में आये सामूहिक दुःख का कारण भी पूर्वकृत सामूहिक कर्मबन्ध निष्कर्ष यह है कि जैसे एक व्यक्ति के वर्तमान में आये हुए आकस्मिक दुःख का कारण पूर्वकृत कर्म होता है, वैसे ही एक समूह पर राष्ट्र, जाति, परिवार, संघ, समाज अथवा सम्प्रदाय पर अकस्मात् आ पड़े दुःख का कारण भी पूर्वकृत सामुदायिक कर्म होता है। अभी-अभी कुछ दिनों पहले ईरान में भयंकर भूकम्प आया। उसमें ५० हजार से भी अधिक लोग मारे गए। लाखों बेघरबार हो गए। सैकड़ों मकान धराशायी हो गए। यह सामूहिक रूप से अशुभ कर्म-फल नहीं तो क्या है ?' ता. ४ जुलाई ९० के समाचार पत्र में एक दुःखद घटना की खबर छपी थी कि मुसलमानों के पवित्र तीर्थस्थान मक्का के निकट एक लम्बी सुरंग में अचानक बिजली बंद हो जाने से ऑक्सीजन की कमी के कारण हजयात्रियों का दम घुटने लगा । इसी में लोग हड़बड़ाकर भागे । इस भगदड़ में लगभग १४०० लोग मर गए। क्या यह सामूहिक रूप से पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल नहीं है ? एक व्यक्ति द्वारा किये हुए दुष्कर्म का फल सारे परिवार को मिलता है एक व्यक्ति के द्वारा किये हुए अनिष्ट कुकर्म का फल उसके साथ-साथ उसके समग्र परिवार को भी एक या दूसरे रूप में किस प्रकार भोगना पड़ता है ? इसके समाधान के लिए निम्नोक्त व्यावहारिक उदाहरण पर्याप्त होगा। पहले हम पूर्वपक्ष ससमाधान प्रस्तुत करते हैं - डॉ. राजेन्द्र स्वरूप भटनागर के शब्दों में 'क' ने किसी व्यक्ति की हत्या की। ऐसी स्थिति में 'क' की पत्नी तथा बच्चे उस हत्या के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, तो वे उसका दण्ड क्यों भोगें ? शायद यहाँ यह कहा जाए कि वे उसके पत्नी और बच्चे नहीं होते तो उन्हें दण्ड नहीं भोगना पड़ता । परन्तु उनका पत्नी तथा बच्चे होना, क्या उनके अपने संकल्प का परिणाम है ? शायद पत्नी के लिए यह कहा जा सकता हो, पर क्या बच्चों के लिए भी यह कहा जा सकता है ? शायद यहाँ यह कहा जाए कि जिस समाज का 'क' सदस्य था, उसकी संरचना में ही ये सम्बन्ध अन्तर्निहित हैं तथा इन सम्बन्धों का एक विशेष प्रकार का होना, समाज के सदस्यों के लिए विशिष्ट प्रकार के परिणाम लाता है. |१३ १. रांची एक्सप्रेस ता. १२-६-१९९० से २. रांची एक्सप्रेस ता. ४-७-१९९० से ३. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित डॉ. राजेन्द्रस्वरूप भटनागर के 'जैसी करनी वैसी भरणी' लेख से उद्धृत पृ. ३०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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