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________________ २८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) व्यक्ति की अहिंसा इत्यादि की प्रवृत्ति क्रियान्वित नहीं हो सकती। समाज या समूह के साथ व्यवहार में ही अहिंसाजनित या हिंसाजनित कर्म की प्रतीति होती है।' ___जैन कर्म-विज्ञान में जिस प्रकार वैयक्तिक कर्मबन्धन और वैयक्तिक कर्मफलभोग (विपाक) को भी स्थान दिया गया है, उसी प्रकार सामुदायिक कर्मबन्धन और सामुदायिक कर्मफलभोग (विपाक) की प्ररूपणा को भी स्थान दिया गया है। कर्मविज्ञान की इसी प्ररूपणा के आधार पर कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में पौर्वात्य और पाश्चात्य आक्षेपकों को समुचित समाधान दिया जा सकता है। यह एक ऐसा कर्मसम्बद्ध सिद्धान्त है, जिसके आधार पर हम डंके की चोट कह सकते हैं कि कर्मबन्धन और कर्मविपाक दोनों ही व्यक्ति की तरह समग्र परिवार, समस्त जाति, समूचे राष्ट्र, समग्र संघ या सारे समाज के सदस्यों को एक साथ निष्पन्न होते हैं। 'सामुदायिक क्रिया' द्वारा सामुदायिक कर्मबन्ध और विपाक जैनकर्म-विज्ञान द्वारा सूचित २५ क्रियाओं में से २४ क्रियाएँ कर्मबन्धक हैं, उनमें से एक क्रिया का नाम है-सामुदायिक (सामुदानिक) क्रिया। उसका अर्थ है-समूह रूप में इकट्ठे होकर अशुभ या अनुचित पापबन्धक अथवा शुभ या पुण्यबन्धक क्रियाओं का करना। उदाहरणार्थ-एक समूह द्वारा वेश्यानृत्य करवाना, सामूहिक अशुभ क्रिया है, और एक समूह द्वारा वैराग्योत्पादक, भगवद्भक्तिप्रेरक, अथवा सद्धर्म-प्रेरक संगीत, भजन या विचारगोष्ठी का आयोजन करना, यह सामूहिक शुभ क्रिया है। इसी प्रकार किसी का वध करने के लिए सामूहिक रूप से कोई षड्यंत्र करना अशुभ सामुदायिक क्रिया है, और किसी व्यक्ति, समूह, जाति या राष्ट्र की रक्षा या सेवा के लिए शुभोपयोग से प्रेरित होकर एक समूह, संस्था या संगठन द्वारा सामूहिक रूप से आयोजन करना सामुदायिक शुभक्रिया है। इसी प्रकार लोगों को ठगने के लिए सामूहिकरूप से एक कम्पनी खोलना अशुभ सामुदायिक क्रिया है और गरीबों, मध्यमवर्गीय लोगों या अभाव पीड़ितों को दैनिक जीवन में काम आने वाली उपयोगी वस्तुओं को लागत मूल्य में या सस्ते भाव में अथवा लागत से भी कम दाम लेकर मुहैया कराने के लिए सामूहिक रूप से एक संस्था खोलना, शुभ सामुदायिक क्रिया है। जिस प्रकार सामूहिक शुभाशुभ क्रिया से शुभ कर्म या अशुभकर्म का बन्ध होता है, उसी प्रकार उन शुभाशुभ कर्मबन्धन का शुभ-अशुभ फल भी सामूहिक रूप से प्राप्त होता है। १. कर्मवाद से भावांश ग्रहण २. देखें-समवायांगसूत्र का २५वाँ समवाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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