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________________ कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २८५ ईश्वर भी मानव-समूह की पीड़ा का कारण नहीं; क्यों और कैसे? ईश्वरकर्तृत्ववादी मानवसमूह पर एक साथ आकस्मिक रूप से पड़े हुए संकट, दुःख या पीड़ा का कारण उस समूह को न मानकर ईश्वर को मानते हैं, तब प्रश्न होता है कि तथाकथित ईश्वर ने पहले उन लोगों को अशुभ कर्म करने की प्रेरणा क्यों दी, जिससे बाद में उन्हें वैसा कटुफल भोगना पड़ा ? ऐसे ईश्वर को न्यायी, निष्पक्ष और दयालु कैसे कहा जा सकता है ? प्रकृति मानवसमूह की पीड़ा का साक्षात् कारण नहीं, निमित्त कारण हो सकती है यदि ईश्वर को मानव समूह की इस पीड़ा का कारण न मानकर प्रकृति को इस सामूहिक पीड़ा की प्रदात्री मानी जाए तो मानव जाति प्रकृति के हाथ का खिलौना मात्र रह जाएगी । वस्तुतः प्रकृति प्रदत्त दुःख या प्राकृतिक प्रकोप केवल निमित्त हो सकता है, उस मानव समूह के स्वयं द्वारा सामूहिक रूप से बांधे हुए कर्मफल को भुगवाने में। जड़ प्रकृति ऐसे ही किसी को पीड़ा या दुःख दे देने में निमित्त बनती हो, ऐसा नहीं है। उसका भी सार्वभौमिक नियम (नियत) है। जैनकर्म सिद्धान्त संवर, निर्जरा और मोक्षतत्त्व द्वारा स्वयं कर्तृत्व का अवसर प्रदाता ईश्वर या प्रकृति दोनों की पराधीनता मानने से मानव के स्वतंत्र कर्तृत्व का, नैतिक-आध्यात्मिक साधना कर, तथा जीवन को उच्च मूल्यों से सुसम्पन्न करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि जैनकर्म सिद्धान्त संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व के माध्यम से प्राणिमात्र को, मनुष्यमात्र को व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार से स्वयं कर्तृत्व का, कर्म-स्वातंत्र्य का तथा कर्म-संवर, कर्म- निर्जरा (क्षय) और कर्म मोक्ष की साधना का, अन्य आध्यात्मिक साधना का एवं जीवन को उच्च मूल्यों से सुसम्पन्न करने का सुअवसर देता है। कर्म: कथञ्चित् वैयक्तिक, कथंचित् सामाजिक इस दृष्टि से संवर-निर्जरा-मोक्ष रूप धर्म की अपेक्षा से कर्म वैयक्तिक प्रतीत होता है, परन्तु जब दूसरों के साथ सम्पर्क, व्यवहार या सम्बन्ध होता है, तब कर्म नैतिकता और धार्मिकता के गुणों को लेकर सामाजिक या सामूहिक बन जाता है। अर्थात्• नैतिकता और धार्मिकता उद्गम से वैयक्तिक है, और व्यवहार में सामाजिक है, इस दृष्टि से नैतिक और धार्मिक आचरण (कर्म) वैयक्तिक होते हुए भी व्यवहार में सामाजिक हो जाता है, क्योंकि दूसरों से यानी समूह से या समाज से सम्पर्क हुए बिना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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