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________________ २८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) मान लीजिए, किसी जगह एक चोर को फांसी पर लटकाने की सजा दी गई है। जल्लाद उसे फांसी पर लटकाने में जरा-सी देर कर देता है। वहीं पास में खड़े पचासों दर्शक उत्तेजित होकर कहने लगते हैं-"अरे! इस दुष्ट को जल्दी से फांसी पर चढ़ाओ। देर क्यों कर रहे हो? इस दुष्ट को ऐसी ही सजा मिलनी चाहिए थी।" सामूहिक हिंसादि पापकर्म का कृत, कारित, अनुमोदित रूप से सामूहिक बन्ध और फल यद्यपि उन दर्शकों का चोर को दण्ड देने, न देने से कोई वास्ता नहीं है। फिर भी नाहक ही द्वेष और आवेशवश वे हिंसाकर्म के वाचिक और मानसिक समर्थनअनुमोदन तथा तथारूप हिंसाकर्म करने की प्रेरणा (कारित) देकर सामूहिक रूप से एक साथ अशुभ कर्म का बन्ध कर लेते हैं। इस नाहक किये हुए कारित और अनुमोदित के रूप में सामूहिक पापकर्मबन्ध का फल क्या सामूहिक दुःख और संकट के रूप में नहीं मिलेगा? ____ तथ्य यह है कि हिंसा, हत्या, चोरी, डकैती, लूटपाट, तस्करी, बलात्कार, व्यभिचार, असत्य, दम्भ, ठगी, महारम्भ, परिग्रहवृत्ति आदि नानाविध पापकर्म हैं। यदि इन हिंसादि पापकर्मों को कोई स्वयं करता है, कोई दूसरे से कराता है, और कोई इनका अनुमोदन-समर्थन करता है, मन से, वचन से तथा काया से, तब उसका फल जैसे व्यक्तिगत रूप से मिलता है, वैसे ही सामूहिक रूप से भी मिलता है। कृत-कारित-अनुमोदित रूप से पापकर्मों का फल वैयक्तिक भी, सामूहिक भी निष्कर्ष यह है कि जैसे व्यक्तिगतरूप से कृत-कारित और अनुमोदित हिंसादि पापकर्मों का फल मिलता है, वैसे ही सामूहिक रूप से कृत-कारित-अनुमोदित हिंसादि पापकर्मों का फल मिले बिना कैसे रह सकता है? मानव-समुदाय की पीड़ा का कारण स्वयं मानव-समुदाय है इसलिए जैनकर्मविज्ञान के अनुसार मानव-समुदाय की पीड़ा का कारण स्वयं मानव-समुदाय है; फिर वह समुदाय जाति के रूप में हो, वर्ग के रूप में हो, राष्ट्र, प्रान्त, नगर, ग्राम, संघ या समाज के रूप में हो, एक साथ सामूहिक रूप से बांधे हुए शुभ-अशुभ कर्मों का फल भी एक साथ मिलता है। १. जैनशास्त्रों में बताया गया है कि शुभ-अशुभ कर्म का बंध तीन करण एवं तीन योग से होता है। तीन करण हैं-करना, कराना और अनुमोदन। इसे ही कृत, कारित और अनुमोदित कहते हैं। तीन योग हैं-मन, वचन और काय। इन तीनों से हिंसादि पाप-कर्मों का आनव एवं बन्ध होता है; कृत, कारित और अनुमोदित रूप से। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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