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________________ २८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) भगवतीसूत्र में इस तथ्य को और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो दुःखित (दुःख देने वाले कर्मों से बद्ध) है, स्पृष्ट है वही दुःख (कर्मजन्य दुःख) को पाता है, जो अदुःखी (दूसरों को दुःख पहुँचाने वाला नहीं) है, वह दुःखजनक कर्म-बन्धन को नहीं प्राप्त करता। इसी प्रकार दूसरे जीवों को समाधि (सुख शान्ति) देने वाला उसी (प्रकार) समाधि (सुख शान्ति) को प्राप्त करता है।' ____ आचारांग सूत्र में मानवजाति के दुःखों और पीड़ाओं के कारणों को कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से जानने वाले कर्मविज्ञान कुशल मानवों की वृत्ति-प्रवृत्ति का उल्लेख करते हुए कहा गया है-“प्राणियों को जो भी दुःख या पीड़ा होती है, वह स्व-स्वकर्मकृत है, यह जानकर दुःख-उत्पत्ति के कारणभूत मिथ्यात्व, हिंसादि अव्रत, प्रमाद, कषाय और योगरूप आम्नवद्वारों का सर्वशः (कृत-कारित-अनुमोदित रूप से) निरोध करे।" इस संसार में मनुष्यों (मानवजाति) को जो दुःख (कर्मजनित दुःख-कारण) कहा गया है, कुशल (कर्मविज्ञान निष्णात) पुरुष उस दुःख (दुःख के कारण समूह) को ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा द्वारा उसका त्याग करते हैं।" ___"इसमें कुशल पुरुष कर्मबन्धन से लिप्त नहीं होता।" इसके विपरीत आचारांग सूत्र में कहा गया है जो मनुष्य विषयसुखार्थी (विषय-सुखों में अत्यन्त आसक्त) एवं बार-बार विषय-सुखों की लालसा करता है, वह सावद्यकार्यों को करता हुआ स्वकृत दुःख (दुःखोत्पादक पापकर्म) से मूढ़ बनकर विपर्यास (विपरीत बुद्धि) को प्राप्त होता है।"....जिसमें ये प्राणी व्यथित या पीड़ित हैं, वह दुःखमय संसार स्वयंकृत ही है।' निष्कर्ष यह है कि जिस प्रकार एक व्यक्ति मूढ़तावश पापकर्मोपार्जन करके अपने लिए स्वयं ही दुःख उत्पन्न करता है, वैसे ही परिवार, जाति, सम्प्रदाय, गाँव, नगर या राष्ट्र आदि समूह भी अपने लिए दुःख का कारण स्वयं बनता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है, मुख्यतया कर्म एक व्यक्ति करता है, परन्तु उसका फल परिवार, समाज, संघ, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि के रूप में समग्र समूह को भोगना पड़ता है। माना कि शुभ या अशुभ कर्म एक ही व्यक्ति स्थूलरूप से करता हुआ दिखता है, १. (क) "दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुखेण फुडे।" (ख) "समाहिकारए णं तमेव समाहि पडिलब्भइ।" -भगवतीसूत्र श. ७ उ. १ २. (क) "इह कम परिनाय सव्वसो ..." (ख) जं दुक्ख पवेइयं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परित्रमुदाहरति।" (ग) "... अहित्य कुसले नोवलिपिज्जासि।" (घ) “सुहट्ठी लालप्पमाणे, सएण दुखेण मूढे विप्परियासमुवेइ।....जसि मे पाणा पव्वहिया।" -आचारांग १/२/६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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