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________________ कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २८१ इस सम्बन्ध में पाश्चात्य आचार दर्शन के विशेषज्ञ डॉ. जॉन मेकेंजी ने एक आक्षेप किया है कि “कर्मसिद्धान्त के आधार पर मानवजाति की पीड़ाओं और दुःखों का कोई कारण नहीं बताया जा सकता।" जैनकर्मविज्ञान द्वारा इसका समाधान इस आक्षेप का समाधान यह है कि कोई भी दुःख या पीड़ा, चाहे वह व्यक्ति की हो, या समूह की, उसका कोई न कोई कारण तो अवश्य ही होता है। अकारण कोई भी दुःख या पीड़ा नहीं होती। जैन कर्मविज्ञान के पुरस्कर्ता भगवान् महावीर से जब पूछा गया-"भगवन् ! दुःख किसके द्वारा कृत हैं ?" इसके उत्तर में उन सवं सर्वदर्शी वीतराग ने कहा-“दुःख अपने द्वारा कृत हैं, दूसरे के द्वारा नहीं। जिस प्रकार एक व्यक्ति दुःख-उपार्जन के लिए स्वयं उत्तरदायी बताया गया है, उसी प्रकार अनेक व्यक्तियों का समूह भी मिलकर दुःख उपार्जन के लिए स्वयं उत्तरदायी हो सकता है। यही कारण है कि भगवान् महावीर ने कर्मसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में यह भी स्पष्ट कहा है कि “कर्मसिद्धान्त-विशेषज्ञ साधक न तो आत्मा की आशातना करे – पीड़ा पहुँचाए, और न ही दूसरों की आशातना करे – पीड़ा-व्यथा पहुँचाए। और न अन्य प्राणियों, भूतों, जीवों या सत्त्वों की आशातना करे, यानी पीड़ा पहुँचाए।''३ ___ इस सूत्र में भगवान् ने मानव जाति को ही नहीं, प्राणिमात्र को दुःख पहुँचाने, पीड़ित करने का निषेध किया है, उसका कारण भी उन्होंने पहले ही बता दिया कि अगर किसी भी मानव या प्राणी को पीड़ा या दुःख दोगे तो बदले में तुम भी कर्मबन्धन करके उसी प्रकार का दुःख या पीड़ा प्राप्त करोगे।' भगवान् ने दूसरों को दुःख या पीड़ा पहुँचाने वाले पापकर्मियों के लिए स्पष्ट कहा है-उन क्रूरकर्मा अज्ञानी जीवों को वहाँ (नरकादि में) प्रगाढ़ वेदना (पीड़ा) होती है; क्योंकि उन्होंने दूसरों को पीड़ा पहुँचाने का दुष्कर्म करके अपने लिए दुःखागार नरक का कर्मबन्धन कर लिया। १. जैन एथिक्स पृ. ३० २. 'दुक्खे केण कडे? गोयमा! अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे।" -भगवतीसूत्र श. १७ उ. ५ ३. णो अत्ताणं आसाएज्जा, णो परं आसाएज्जा, णो अण्णाई पाणाई भूयाई जीवाइं सत्ताई आसाएज्जा। __ -आचारांग श्रु. १ अ. ६ उ. ५ ४. (क) देखें, आचारांगसूत्र का पांचवाँ अध्ययन के ५वें उद्देशक का-तुमसि नाम तं चेव . . ---- . इत्यादि पाठ। । (ख) “एयं तुलमण्णेसिं। -आचारांग १/१/७ ५. 'सुया मे नरए ठाणा, असीलाणं च जा गई। बालाणं कूरकम्माणं पगाढा जत्य वेयणा॥' -उत्तराध्ययन सूत्र ५/१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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