________________
४
कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ?
कर्मसिद्धान्त वैयक्तिक जीवन की तरह सामाजिक जीवन से भी सम्बद्ध
कर्मसिद्धान्त जितना व्यक्तिगत जीवन से सम्बद्ध है, उतना ही, बल्कि कई मामलों में पारिवारिक, सांघिक, वर्गीय, जातीय, राष्ट्रीय, संस्थाकीय आदि के रूप में सामाजिक जीवन से भी सम्बद्ध है। जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने जीवन में कर्मों को बांधने एवं कर्मों से मुक्त होने, अथवा पूर्वकृत कर्मों का क्षय एवं आगन्तुक कर्मों का निरोध करने का पुरुषार्थ करता है, उसी प्रकार परिवार आदि के रूप में बद्ध समूह भी अपने जीवन में कर्मों को बांधने, तथा पूर्वकृत कर्मों का क्षय और नवीन आने वाले कर्मों (आनवों) का निरोध करने तथा कर्मों से सर्वथा मुक्त होने का भी पुरुषार्थ करता है। इसलिए कर्म सिद्धान्त के विषय में जैनकर्मविज्ञान की यह मान्यता है कि एक व्यक्ति के कर्म का फल उस व्यक्ति के साथ-साथ दूसरों को भी भोगना पड़ता है, प्रायः समग्र परिवार को, सारी जाति को, समस्त वर्ग को या संस्था के सभी सदस्यों को, अथवा कभी-कभी सारे राष्ट्र को भोगना पड़ता है। इसे ही जैन - कर्मविज्ञान की परिभाषा में सामुदानिक कर्मबन्धन और उसका सामुदायिक फलभोगं (विपाक) कहा जाता है।'
मानवजाति की पीड़ाओं और दुःखों का कोई कारण नहीं : एक आक्षेप
किन्तु जैनकर्म - विज्ञान के इस सिद्धान्त और इसके रहस्य से अनभिज्ञ कतिपय दार्शनिक और विचारक भी इस तथ्य को न मान कर जैन कर्म विज्ञान पर आक्षेप करते हैं और उसके इस सिद्धान्त को निराधार बताते हैं।
१. देखें- सामुदायिक रूप से कर्मफल की साक्षी गाथा" जावंतऽ विज्जापुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । प्पति बहुसो मूढा संसारम्मि अनंतए । " विसन्ना पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ।”
Jain Education International
- उत्तराध्ययन अ. ६ गा. १, ११
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org