SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म अपना फल कैसे देते हैं ? २७९ आशय यह है कि कर्म अपना फल देने के पश्चात् आत्मप्रदेशों से चिपके नहीं रहते, बल्कि एक क्षण के बाद शीघ्र ही आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। जिस प्रकार पका हुआ आम आदि फल डाली से गिरकर पुनः उसमें लग नहीं सकता, उसी प्रकार कर्म अपना फल देने के पश्चात् तत्काल आत्मप्रदेशों से अलग हो जाते हैं। फिर वे पुनः फल नहीं दे सकते। जो कर्म अपना फल दे चुकते हैं, उनका क्षय हो जाता है, तथा वे कर्मपरमाणु आत्मा से पृथक् होकर और कर्म-पर्याय छोड़कर अन्य अकर्मरूप पर्याय में परिवर्तित हो जाते हैं। कर्म के द्वारा फल देना, उस बद्ध कर्म के कषाय पर निर्भर सांख्य, मीमांसा और बौद्धदर्शनों की तरह जैनदार्शनिक मानते हैं कि कर्म स्वयं फल प्रदान करते हैं। वे अपना फल देने में परतन्त्र नहीं, स्वतन्त्र हैं । जैनकर्मविज्ञान-मर्मज्ञों का कहना है कि बद्ध कर्म अपनी स्थिति पूर्ण करके उदयावस्था में आकर स्वयं फल प्रदान करते हैं। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है - कर्म बंध होते ही शीघ्र फल देने नहीं लगते, अपितु जिस प्रकार भोजन तुरन्त न पचकर जठराग्नि की तीव्रता - मन्दता के अनुसार होता है। अतः कर्मों का फल देना उसके कषाय पर निर्भर है। यदि तीव्र कषायपूर्वक कर्मों का आनाव हुआ है, तो कर्म कुछ समय पश्चात् शीघ्र ही अधिक प्रबल रूप से फल देना प्रारम्भ कर देते हैं और मन्दकषायपूर्वक कर्मों के बंधने से कर्मों का विपाक देर से होता है।' इस प्रकार कर्मविज्ञान के नियमानुसार बन्धचतुष्टय के अनुरूप कर्म अपना फल स्वयं प्रदान करते हैं; वह फल प्रदान में किसी सर्वशक्तिमान् ईश्वर आदि की अपेक्षा नहीं रखता। १. जैनदर्शन में आत्मविचार से भावांश ग्रहण पृ. २१७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy