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________________ २७८ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) आकर्षण (खींचने की) शक्ति पैदा हो जाती है, जिससे वह कंघा रूई के बारीक तन्तुओ को आकर्षित करने लगता है। इसी तरह जब कोई व्यक्ति मन-वचन-काया से कोई कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया करता है तो उसके निकटवर्ती चारों ओर के सूक्ष्म परमाणुओं में हलचल उत्पन्न हो जाती है। वे सूक्ष्म कर्मपरमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं। उनमें उस व्यक्ति के कर्मानुसार फल देने की शक्ति अपने आप पैदा हो जाती है। इन कर्मशक्तियुक्त परमाणुओं का आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह-सम्बन्ध हो जाता है। और ये कर्मशक्ति युक्त परमाणु पूर्व विद्यमान सूक्ष्म (कार्मण) शरीर में मिल जाते हैं। कुछ समय के पश्चात् जब कार्मण शरीरस्थ कर्मपरमाणु क्रियाशील होते हैं यानी फलोन्मुख होते हैं, तब उनक प्रभाव उस जीव पर पड़ने लगता है, अर्थात्-कर्म-शक्ति अभिव्यक्त होने लगती है। वे कर्मपरमाणु जीव की ज्ञान- दर्शन शक्ति को आवृत कर देते हैं, उसकी सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की शक्ति को कुण्ठित, विकृत एवं मोहित कर देते हैं; उससे उस जीव की मनोवृत्ति में असर पड़ जाता है, उसकी लेश्या या भावना तीव्र-मन्द राग-द्वेष रूप या क्रोधादि कषायरूप हो जाती है। उसके शरीर की गति -मति में, उसकी बुद्धि में, उसके रहन-सहन और व्यवहार में काफी फर्क पड़ जाता हैं। इष्ट-अनिष्ट पदार्थों या विषयों का संयोग-वियोग होने पर उसे तीव्र-मन्द-सुख या दुःख की अनुभूति (अनुभव) होने लगती है। उसकी ज्ञानादि शक्ति में परिवर्तन आ जाता है। इस प्रकार उस जीव को, विशेषतः उस मनुष्य को, अपने पूर्वकृत कर्मों का फल अपने आप मिलने लगता है। अतः कर्मफल भुगवाने के लिए, परमात्मा या अन्य किसी विधाता या नियन्ता की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।" आत्मा के योग (मन-वचन-काय) तथा रागद्वेषादि काषायिक भावों के निमित्त से जब कर्मवर्गणा के परमाणु-पुद्गल कर्म के रूप में परिणत होकर आत्मा से सम्बद्ध होते हैं, तब उनमें चार प्रकार की बन्धशक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है - (१) कर्मों का स्वभाव (प्रकृति), (२) उनकी स्थिति (काल-मर्यादा), (३) उनकी फल देने की शक्ति तथा (४) उनका परिमाण (संख्या)। उन बद्ध कर्मपरमाणुओं में जो फल देने की शक्ति निर्मित होती है, यही शक्ति काल-परिपाक होने पर आत्मा को सुख या दुःख के रूप में कर्मों का फल देती है। जब इन कर्मपरमाणुओं की कर्मशक्ति कार्य करती करती क्षीण हो जाती है तब वे कर्म शक्तिविहीन हो जाते हैं, तब इनका सम्बन्ध सूक्ष्म कार्मण शरीर से छूट जाता है। १. कर्ममीमांसा से भायांश ग्रहण, पृ. ४४-४५। २. जैनदर्शन में आत्म विचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से भावांश ग्रहण पृ. २१७ ३. कर्ममीमांसा से भावांश ग्रहण पृ. ४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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