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कर्म अपना फल कैसे देते हैं ?
२७७ इसलिए मानना पड़ता है कि यह कर्मफलप्रदात्री शक्ति प्रत्येक जीव के भीतर शक्तिरूप से सदृश होते हुए प्रति व्यक्ति (प्रत्येक प्राणी) में पृथक्-पृथक् है।
आशय यह है कि यद्यपि जड़ कर्म चेतनशक्ति के अभाव में स्वतः फल नहीं दे सकते, किन्तु इसके साथ ही जैन कर्मविज्ञान यह मानता है कि कर्मों को अपना फल देने के लिए कर्ता से भिन्न अन्य चेतन सत्ता की अथवा ईश्वर की आवश्यकता नहीं रहती । कर्मफलदात्री शक्ति का आधार : कार्मण शरीर
उष्णता, विद्युत् आदि प्राकृतिक सूक्ष्म या स्थूल पदार्थ के समान इस कर्मफलप्रदात्री शक्ति का कोई न कोई आधार अवश्य होना चाहिए। इस कर्मफलप्रदात्री शक्ति का आधार आत्मा तो हो नहीं सकता, क्योंकि आत्मा का स्वभाव ज्ञानादिमय है; इसके विपरीत कर्मशक्ति का स्वभाव ज्ञानादि गुणों को आच्छादित एवं विकृत करना है। अतः उसका आधार उस शरीर (कर्मशरीर) को मानना पड़ेगा, जो आत्मा के साथ परलोक में जाते समय भी रहता है। इसलिए कर्मफल प्रदान करने वाला कर्मपुद्गल के अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से बना हुआ (सूक्ष्म) कार्मण शरीर ही है, जो सारे शरीर में व्याप्त है; आत्मा के साथ ही साथ रहता है तथा स्थूल पदार्थों से बनी हुई दीवार, छत आदि में भी प्रविष्ट होकर आसानी से आत्मा के साथ ही साथ निकल जाता है।
आशय यह है कि यह सूक्ष्म कार्मण शरीर जीव द्वारा पूर्वकृत समस्त कर्मों के फल देने की शक्ति से युक्त सूक्ष्म कर्मपुद्गलपरमाणुओं का पुंज है। कर्मफलदात्री शक्ति से युक्त इन कर्म-परमाणुओं का आत्मा के साथ सूक्ष्म कार्मणशरीर के रूप में सम्बन्ध रहता है। वह सूक्ष्म (कार्मण) शरीर अर्थात् कर्मपरमाणु पुंज ही आत्मा को एक योनि और गति से दूसरी योनि एवं गति में ले जाते हैं और शरीर से सम्बद्ध सभी इन्द्रिय, योग, उपयोग, वेद आदि निर्धारित करते हैं।
जब जीव नये कर्म करता है, तब उस कर्म के अनुसार फल देने वाली शक्ति कुछ नवीन सूक्ष्म कर्म-परमाणुओं में स्वतः उत्पन्न हो जाती है; तथा ये ( नये) कर्म-शक्तियुक्त परमाणु उस जीव के पहले से विद्यमान सूक्ष्म कार्मण शरीर में प्रविष्ट होकर सम्मिलित "एवं सम्बद्ध हो जाते हैं ।"
कर्मफल प्रदान करने वाली यह शक्ति किस प्रकार की प्रक्रिया से उत्पन्न होती है ? इसे समझने के लिए एक उदाहरण ले लीजिए। जैसे- दो पदार्थों के परस्पर संघर्षण से उष्णताशक्ति उत्पन्न हो जाती है; जो कुछ देर तक स्थिर रहकर बाद में आकाश में लुप्त हो जाती है। अथवा जैसे - मस्तक के केशों में सेलुलाइड का कंघा करने से उस कंघे में
१. कर्म-मीमांसा से भावांश ग्रहण, पृ. ४३-४४
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