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________________ २७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) आयुर्वेदशास्त्र के नियमानुसार भोजन करते समय मन में किसी प्रकार का क्षोभ, रोष, उद्विग्नता, शोक, व्यथा, पीड़ा या वैमनस्यभाव नहीं होना चाहिए। भोजन करने के आधा घंटा पहले से लेकर भोजन करने के आधा घंटा पश्चात् तक मन में किसी भी प्रकार का अशान्तिकारक विचार आना हितावह नहीं होता । शान्त और अक्षुब्ध मनःस्थिति में जो भोजन किया जाता है, उसका परिपाक अच्छा होता है, वह भोजन विकृतिकारक नहीं होता। इसके विपरीत शोक-भय-काम-क्रोधादि भावों की मनःस्थिति में भोजन किया जाए तो उसका परिपाक ठीक नहीं होता। इससे यह स्पष्ट है कि कर्ता के भावों का प्रभाव अचेतन वस्तु पर भी पड़ता है और उसी के अनुसार उसका विपाक होता है। ठीक यही बात अचेतन कर्मपुद्गलों के विषय में समझ लेनी चाहिए। कर्म-कर्ता . के मानसिक तीव्र-मन्द शुभ - अशुभ अध्यवसायों या परिणामों का प्रभाव कर्मपरमाणुओं पर पड़ता है, और उसी के अनुसार उसका अच्छा या बुरा, तीव्र या मन्द विपाक (परिपाक) होता है, और कालान्तर में तदनुसार अपने आप उक्त कर्म का वैसा ही सुखकारक या दुःखकारक फल मिल जाता है।' कर्म अपने आप ही फल दे देते हैं, अन्य नियामक की आवश्यकता नहीं यह ठीक है कि कोई भी जीव स्वेच्छा से अपने अशुभ कर्मों का दुःखद कटुफल नहीं भोगना चाहता, परन्तु कर्मों के फल देने के नियमों में कोई परिवर्तन, रियायत, खुशामद, या आरजू-मिन्नत आदि नहीं चलती। कर्मकर्ता चाहे या न चाहे, उसे तो नियत समय पर-कर्म की स्थिति का परिपाक होने पर उसके फलोन्मुख होने (उदय में आने) पर - भोगना ही पड़ता है। जैसे- कोई व्यक्ति स्वादलिप्सावश अस्वास्थ्यकर भोजन करता है तो उसके शरीर में रोग उत्पन्न होता है। वह इस रोग का तनिक भी इच्छुक नहीं है। फिर भी स्वास्थ्य - विरुद्ध हानिकारक भोजन करने का फल व्याधि या बीमारी के रूप में उसे भोगना ही पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि कर्मफलदायक नियम भी एक प्रकार की शक्ति के रूप में हैं, जो मनुष्य की इच्छा तथा मानवीय ( मानव की आत्मिक या शारीरिक) शक्ति के विरुद्ध होते हुए भी अपना कार्य करते रहते हैं। अतः यह शक्ति न तो स्वयं चेतन या चेतनजन्य है और न किसी एक विशिष्ट चेतन व्यक्ति (ईश्वर) में केन्द्रित होकर कार्य करती है; और ही यह कर्मफल- प्रदात्री शक्ति जीव के शरीर से बाहर किसी स्थान पर केन्द्रित होकर परस्पर विरोधी कर्मवाले भिन्न-भिन्न जीवों को उनके विभिन्न कर्मों का फल दे सकती है। १. वही, पृ. १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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